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सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

आस्था के साथ भीड़ तंत्र ?

      गुजरात के जूनागढ़ के गिरनार पर्वत पर स्थिति भवनाथ मंदिर में जिस तरह से महाशिवरात्रि के अवसर पर एकत्रित हुए श्रद्धालु हादसे का शिकार हुए क्या वैसी स्थितयों को टालने के लिए हमारे देश में कोई कार्य योजना है भी या नहीं क्योंकि देश के किसी न किसी हिस्से में हर वर्ष तीन चार ऐसी घटनाएँ होती ही रहती हैं जिनमें आये हुए श्रद्धालु मौत के मुंह में समा जाते हैं ? हमारे में देश की धर्मिक विविधता और विशाल आबादी को देखते हुए विभिन्न धर्मों के बहुत सारे बड़े आयोजन समय समय पर होते ही रहते हैं जिससे इन स्थलों पर बहुत बड़ी संख्या में श्रद्धालु एकत्रित होते हैं. प्राचीन काल से जिस तरह से ये आयोजन बिना किसी समस्या के होते चले आये हैं उस स्थिति में किसी का ध्यान भी इस तरफ नहीं जाता है कि हमारे आस पास होने वाले किसी धार्मिक आयोजन में भी इस तरह की स्थिति उत्पन्न हो सकती है ? हम आम तौर पर यह मान कर ही चलते हैं कि हमारे यहाँ इस तरह से कोई दुर्घटना हो ही नहीं सकती जबकि भीड़ में अचानक क्या कुछ हो जाये किसी को भी नहीं पता होता है फिर भी स्थानीय आयोजक या प्रशासन इस बात की गंभीरता को नहीं समझता है और भीड़ को अपने हिसाब से चलने की स्वतंत्रता दे देता है जिससे किसी भी समय कुछ भी होने की आशंका बनी रहती है. हर वर्ष तो नहीं पर कभी कभी इनमें ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिससे निपटने के लिए कुछ भी नहींकिया जा रहा है. 
        स्थानीय प्रशासन या राज्य सरकारें इस तरह के आयोजनों को आज तक चिन्हित नहीं कर पायीं हैं जिनमें बड़ी संख्या में लोग इकट्ठे होते हैं क्योंकि उनको इस तरह के आयोजन पर अनावश्यक ध्यान देने में कोई लाभ नहीं दीखता है. इस तरह के आयोजन विभिन्न पर्वों पर देश के विभिन्न स्थलों पर होते रहते हैं और उनमें स्थानीय जनता की मान्यता के अनुसार बहुत बड़ी संख्या में लोग आते भी हैं फिर भी जिस तरह से इनके बारे में अधिकारी और सरकारें निश्चिन्त रहा करती हैं उसका कोई मतलब नहीं है. इस बारे में अब एक स्पष्ट दिशा निर्देश जारी होने चाहिए कि आयोजन के आकार के अनुसार वहां पर यातायात व्यवस्था सुगम रखी जाये और संकरी गली या स्थानों पर श्रद्धालुओं के दबाव को नियंत्रित किया जाये क्योंकि इसके बिना अब आगे कि योजना नहीं बनाई जा सकती है. आम तौर पर यह देखा जाता है कि ऐसे मेलों आदि में सामान बेचने वाले भी आने जाने वाले मार्गों को अपनी दुकाने लगाकर संकरा कर देते हैं जिससे भी किसी दुर्घटना के समय वहां तक पहुँचने में भी समस्या होती है और दुर्घटना की विभीषिका और बढ़ जाती है. कसी भी छोटे या बड़े मेले या पर्व विशेष पर होने वाले आयोजन के लिए स्थानीय प्रशासन के पास एक समूची कार्य योजना होनी चाहिए और आपदा प्रबंधन के बारे में यहाँ पर आने वाले दुकानदारों और स्थानीय निवासियों को भी समझाया जाना चाहिए. 
          देश में इस तरह के आयोजन सदैव होते रहेंगें पर इन को नियंत्रित ढंग से करवाने पर पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि जब दुर्घटना हो जाती है तो कुछ भी नहीं किया जा सकता है. हमेशा की तरह स्थानीय प्रशासन इस बात का रोना रो सकता है कि उसके पास सुरक्षा बलों की कमी रहती है जिस कारण से भी इस पर पूरा ध्यान नहीं दिया जा पाता है ? अगर धन के अभाव में कुछ नहीं किया जा सकता है तो स्थानीय स्तर स्वयं सेवकों को तैयार करने का प्रयास किया जाना चाहिए क्योंकि जो काम बड़ी संख्या में लगा हुआ प्रशासन अपने दबाव से नहीं करा पाता है वह काम इस तरह के स्वयं सेवक आसानी से कर दिया करते हैं पर अभी तक देश में इस तरह की सोच ही विकसित नहीं हो पायी है कि कोई इस तरफ़ इस तरह से सोचने का प्रयास करे ? स्थानीय प्रशासन को अपने से ही मतलब रहता है तो इन मंदिरों आदि का सञ्चालन करने वाली समितियां केवल परिसर के अन्दर ही सीमित रहती हैं ऐसी स्थिति में कुछ भी हो सकता है ? अब यह घटना गुजरात में हुई है और जिस तरह से राज्य के बारे में मोदी ने एक व्यापक नीति के तहत काम किया है उस स्थिति में इस दुर्घटना के बाद उनका ध्यान इस तरह के आयोजनों की सुरक्षा पर भी कितना जायेगा यह तो समय ही बताएगा पर एक छोटी सी इच्छा शक्ति इस तरह के बड़े आयोजनों को आसानी से अराजकता के चंगुल में जाने से रोक सकती है.
   
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