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रविवार, 17 मई 2015

केंद्रीय सूचना आयोग और सरकार

                                                    देश में राजग जहाँ केंद्र में सत्तारूढ़ होने की पहली वर्षगांठ धूमधाम से मनाने की तैयारी करने में लगा हुआ है वहीं इस सबके बीच केंद्रीय सूचना आयोग के बारे में जिस तरह की ख़बरें सामने आ रही हैं उनको देखते हुए यही लगता है कि भले ही मोदी सरकार प्रशासन में कितनी ही पारदर्शिता का वायदा करती रहे पर मोदी अपने गुजरात के सीएम के रूप में जनता से सूचना के अधिकार के तहत जानकारियां साझा न करने की नीति पर ही आगे बढ़ने में लगे हुए हैं. सरकार के गठन के एक वर्ष बाद भी यदि आम आदमी के लिए सरकारी गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए बनाये गए सूचना के अधिकार कानून के अंतर्गत सरकार सूचनाएँ पहुँचाने के पूरे तंत्र के साथ इस तरह का व्यवहार कर रही है तो उसे क्या समझा जाये ? एक तरफ खुद मोदी और उनके मंत्रियों द्वारा यह कहा जाने लगा है कि पिछले एक वर्ष में कोई घोटाला सामने नहीं आया है तो यह बहुत अच्छी बात है पर केवल इस बात के दम पर ही क्या आम लोगों से संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार को इस तरह से रोका जा सकता है जिसने नीतिगत मामलों में लिए गए निर्णयों पर पिछली सरकार को लगातार कटघरे में खड़ा करने का ही काम किया था.
                                 मोदी के काम करने की शैली एक तरफ़ा ही है और वे इस मुद्दे पर किसी की भी नहीं सुनना चाहते हैं तो यह तो स्पष्ट ही है कि संप्रग सरकार के १० वर्षों के कार्यकाल में आम लोगों के हाथों में इस कानून के तहत जो शक्ति आई थी मोदी की राजग सरकार उसकी धार को कुंद करने में पूरे प्रयासों से जुटी हुई है क्योंकि उसे यह पता है कि किसी भी नीति की कमियों को कैसे निकला जा सकता है. पिछली लोकसभा में भाजपा के एक गट ने खुद और अपने सहयोगियों के माध्यम से सरकार की नाक में दम करके रखा था और लगभग हर नीतिगत मुद्दे की न्यायिक समीक्षा करने की कोशिश भी की गयी थी. अच्छे कानून कर जिस तरह से नीतिगत मामलों पर रोक लगाने के लिए काम किया गया था आज वही डर सरकारी अधिकारियों के मन में बैठा हुआ है और मज़बूत कहे जाने वाले पीएम मोदी की हुंकार भी उनको काम करने के लिए प्रेरित नहीं कर पा रही है जिससे देश में विकास के दावे तो लगातार किये जा रहे हैं पर उनमें उस स्तर पर सफलता नहीं मिल पा रही है जिसके लिए खुद पीएम लगातार बेहताशा कोशिशें कर रहे हैं.
                                  कानून का सदुयोग और दुरूपयोग ही उसके भविष्य को निर्धारित किया करता है और आज यह कानून सरकार के लिए दोधारी तलवार बन चुका है इसलिए ही सरकार मुख्य सूचना आयुक्त और आयोग में तीन अन्य सूचना आयुक्तों की नियुक्ति के बारे में  अनमने ढंग से कोशिशें करती नज़र आ रही है और यदि उसका यही रवैया रहा तो वह दिन दूर नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट में इस सम्बन्ध में एक और याचिका भी आ सकती है जिसमें इन नियुक्तियों के बारे में सरकार से सवाल पूछे जा सकते हैं तथा उसकी सूचना आयोग को कमज़ोर करने की कोशिशों पर भी उसके लिए असहज स्थिति पैदा की जा सकती है. जब सरकार किसी भी तरह से कानून का उल्लंघन नहीं कर रही है तो वह इस तरह से आम जनता के इस अधिकार पर कुठाराघात क्यों करना चाहती है यह सभी की समझ से बाहर है और ऐसी हरकतों से सरकार विरोधी तत्वों को भी उसके हर फैसले पर सूचना मांगने की प्रवृत्ति में भी बढ़ोत्तरी देखी जा सकती है. अच्छा हो कि देशहित में सरकार अपने इस पूर्वाग्रह से निकल कर काम करना शुरू करे और केवल राजनैतिक लाभ के लिए मांगी जाने वाली सूचनाओं से इस तरह से डरना भी बंद करे क्योंकि जीवंत भारतीय लोकतंत्र में कमज़ोर कहे जाने वाले पीएम मनमोहन सिंह ने यह साहस दिखाया था पर आज मज़बूत कहे जाने वाले पीएम नरेंद्र मोदी इतना साहस नहीं जुटा पा रहे हैं.  
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