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रविवार, 15 अप्रैल 2018

एक राष्ट्र एक चुनाव की परिकल्पना

                                                मोदी सरकार की देश में लोकसभा- विधानसभा चुनाव एक साथ कराये जाने की मंशा पर विभिन्न स्तरों पर विचार करने की दिशा में काम शुरू हो गया है पर क्या इस तरह प्रयास से आने वाले समय में देश को कोई लाभ होगा या फिर देश एक नयी तरह की तानाशाही युक्त लोकतान्त्रिक अराजकता की तरफ बढ़ जायेगा ? आज के समय भी जिस तरह से त्रिशंकु सदन बनने पर सरकार बनाना पूरी तरह से केंद्र सरकार की मंशा पर ही निर्भर हो चुका है उससे आने वाले समय में केंद्र की तरफ से पड़ने वाले अनावश्यक दबाव से राज्यों के नेता किस तरह से निपट पायेंगें यह बहुत बड़ी चुनौती होने वाला है. यह सही है कि हर वर्ष कभी भी किसी न किसी राज्य में चुनाव होने से लागू होने वाली आचार संहिता के चलते विकास कार्यों की गति में रुकावट पैदा होती है पर क्या नेताओं को यह सोचने का समय नहीं है कि आज उनको आचार संहिता लागू होने से इतना कष्ट क्यों होता है जबकि यह परंपरा आज़ादी के बाद से ही चली आ रही है ? आचार संहिता लगाने का सीधा सा मतलब यही हुआ करता था कि सत्ताधारी दल और पूरे विपक्ष के लिए चुनावों से पूर्व एक समान वातावरण में जनता के सामने जाने का विकल्प खुला रहे. आज आचार संहिता से विकास रुकने की प्रक्रिया का आरोप लगाने वाले नेता क्या यह स्वीकार कर सकते हैं कि उनकी नीतियां भी चुनावों को प्रभावित करने के लिए ही होती हैं ?
                                         एक साथ चुनाव होने पर सबसे बड़ी समस्या तब सामने आएगी जब केंद्र या किसी राज्य में कोई सरकार अल्पमत में आ जाएगी तब किस तरह से सांसदों या विधायकों की खरीद फरोख्त की जाएगी इसका अंदाज़ा आज आसानी से लगाया जा सकता है क्योंकि राज्यसभा और राज्यों की विधान परिषदों के चुनावों में जिस तरह से कुछ हद तक धन कुबेरों को हर पार्टी मैदान में उतारती रहती है उससे अल्पमत वाली सरकार को  बचाने के लिए सरकार समर्थक धन कुबेर और उद्योगपति परदे के पीछे के खेल में धन का दुरूपयोग कर क्या लोकतंत्र का मज़ाक नहीं उड़ाएंगे ?  लोकतंत्र नैतिकता के आधार पर टिकता और चलता है पर केन्द्र की मोदी सरकार ने जिस तरह से कई राज्यों में सबसे बड़े दल की राज्यपालों के माध्यम से अनदेखी कर किसी भी परिस्थिति में अपने गठबंधन की सरकारें बनाने की गलत परंपरा शुरू कर दी है वैसी स्थिति में कोई महत्वाकांक्षी केंद्र सरकार सभी राज्यों में राजनैतिक गतिविधियों को आसानी से अपने अनुसार मोड़ने की तरफ क्या नहीं बढ़ जाएगी? भारत जैसे विविधता भरे देश में जनता के सामने हर स्तर पर अपने मनपसन्द उम्मीदवार को चुनने का अवसर संविधान की तरफ से दिया गया है जिससे आज देश के कई हिस्सों में क्षेत्रीय दल भी सफलता के साथ सरकारें चला रहे हैं पर एक साथ चुनाव होने से मतदाताओं में भ्रम की स्थिति भी बन सकती है जो राजनीति को केवल राष्ट्रीय दलों के बीच में ही सीमित करने का काम भी क्र सकती है ?
                                         सबसे बड़ा मुद्दा धन को बचाने और विकास की गति को निरंतर बनाये रखने से जुड़ा है तो इस मामले के लिए सबसे पहले नेताओं को अपने गिरेबान में झाँकना होगा क्योंकि सरकार कोई भी दल चलाये पर देश की समस्याएं तो वही रहती हैं तो संसद और विधान सभाओं से होने वाले विधायी कार्यों पर ध्यान देकर नीतियों को लम्बे समय के लिए लागू करने की दिशा में सोचना चाहिए जैसे एक समय देश में पञ्चवर्षीय योजनाएं और २० सूत्री कार्यक्रम चला करते थे जिससे किसी भी चुनाव के आने जाने से इन योजनाओं के क्रियान्वयन पर किसी तरह की रोक नहीं होती थी. क्या आज देश के नेताओं को एक चुनाव से अधिक एक अलग सोच के साथ विकास के बारे में सोचने की आवश्यकता नहीं है? योजना आयोग हो या बदले नाम नीति आयोग जब तक नेताओं की मंशा साफ़ नहीं होगी तब तक किसी भी परिस्थिति में चुनावी सुधारों को सही तरह से लागू नहीं किया जा सकता है।  आखिर सरकार की मंशा केवल चुनाव एक साथ कराने के सुधारों तक ही क्यों रुकी हुई है क्या देश के सम्पूर्ण चुनाव परिप्रेक्ष्य पर विचार का उसमें आज के अनुसार बदलाव करने की आवश्यकता सरकार को महसूस नहीं हो रही है ?  चुनाव सुधारों को केवल अपने परिप्रेक्ष्य में देखने से परिस्थितयां बदलने वाली नहीं है और सबसे बड़ी समस्या त्रिशंकु और अल्पमत की सरकारों वाले राज्यों में सामने आने वाली है क्योंकि वहां पर चुनाव हो नहीं पायेंगें तो क्या अघोषित रूप से केंद्र अपने हिसाब से राष्ट्रपति शासन लगाकर वहां की बागडोर सीधे अपने हाथों में नहीं ले लेगा ?
                                       इस सबसे अच्छा यही रहेगा कि चुनावों के लिए प्रति वर्ष एक महीना निर्धारित कर लिया जाये और पूरे वर्ष में कभी भी होने वाले चुनावों को केवल उसी महीने में कराने की दिशा में काम शुरू कर दिया जाये इससे जहाँ राज्यों में एक साथ एक वर्ष में चुनाव समाप्त हो जायेंगें वहीं किसी भी तरह की समस्या आने पर अगले वर्ष उसी महीने में फिर से चुनाव कराये जा सकेंगें। क्या किसी भी राज्य में चुनाव कराने के लिए आयोग को इतना लम्बा समय देना चाहिए कि नेता अपने अनुसार पूरे चुनाव को मोड़ने का समय पा जाएँ और खुलेआम लोकतंत्र का चीर हरण कर सकें ?  विकास अवरुद्ध होने  की अवधारणा सामने लाने वाले दलों को अब यह सोचना होगा कि उनकी  प्रभावित करने वाली नीतियों के चलते समस्याएं अधिक होती है न कि देश में अलग अलग समय चुनाव होने से यह सब प्रभावित होता है। 

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