मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 18 मई 2018

केंद्र और संवैधानिक पद

                                                                   कर्नाटक में त्रिशंकु विधानसभा के सामने आने के बाद जिस तरह से राजनैतिक घटनाक्रम में तेज़ी से बदलाव दिखाई दिया उससे किसी को भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि हमारे नेताओं की नैतिकता केवल तभी तक रहती है जब तक उनको अनैतिक कार्य करने का मौका नहीं मिलता है और इस काम में केंद्र में सत्ताधारी दल की तरफ से सदैव ही दबाव देकर काम किया जाता रहता है. आज़ादी के बाद से जिस तरह से धीरे धीरे केंद्र सरकार ने अपने अधिकारों का नैतिकता के मापदंडों को किनारे करते हुए दुरूपयोग शुरू किया था उसका दुष्परिणाम आज सबके सामने है और सबसे अधिक चिंता की बात तो यह है कि आज़ादी के बाद से जो गलती गैर-भाजपाई दलों ने सदैव ही की थी आज उसको नज़ीर बताकर खुद भाजपा भी उससे नीचे जाने को तैयार दिखाई देती है. खुद को पार्टी विद डिफ़रेंस कहने वाली भाजपा कुछ मौकों पर यदि पूर्ववर्ती सरकारों से अलग हटकर राजयपालों को संविधान की मंशा के अनुरूप काम करने के लिए खुला छोड़ना शुरू कर देती तो वास्तव में उसकी तरफ से एक नए राजनैतिक युग की शुरुवात की जा सकती थी पर देश को येन केन प्रकारेण कांग्रेस मुक्त करने की धुन में मोदी शाह की जोड़ी भाजपा को कांग्रेस का अन्य संस्करण बनाने की तरफ बढ़ती ही जा रही है जिससे देश में मूल्यों की राजनीति के और भी नीचे जाने की संभावनाएं हैं.
                                                 निश्चित तौर पर जब संविधान लिखा गया तो उस समय देश की आज़ादी के लिए लड़ने वाले नेताओं की पूरी फौज मौजूद थी जिनमें नैतिकता कूट कूट कर भरी हुई थी तो उन्होंने अपनी सोच के अनुरूप ही काम शुरू किया और राज्यों में सरकार बनाने के लिए पूरा दारोमदार राज्यपाल के विवेक पर सिर्फ इसलिए  छोड़ दिया क्योंकि यह माना गया था कि लोकतंत्र की मूल भावना बहुमत के आधार पर राज्यपाल को निर्णय लेने का अधिकार दिया जाना चाहिए। कालांतर में अपनी राजनीति और अपने या सहयोगी दलों की सरकारों को बचाने के लिए केंद्र सरकारों की तरफ से जिन हथकंडों का उपयोग किया उससे निश्चित तौर पर भारतीय लोकतंत्र कमज़ोर ही हुआ है और सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि आम जनमानस को भाजपा से कुछ उम्मीदें थीं कि वह इस तरह के क़दमों से खुद को दूर रखेगी उसकी आशाओं पर भाजपा पूरी तरह से विफल रही है. यह भी सही है कि हर राजनैतिक दल को अपने विस्तार के लिए काम करने की पूरी छूट है पर क्या यह विस्तार किसी भी कीमत पर किसी भी तरह से किये जाने को सही माना जा सकता है ?
                                                 राज्यपालों की तरफ से लगातार विवादित फैसले लेने की स्थिति में क्या अब समय नहीं आ गया है कि देश से राज्यपाल पद की ही विदाई कर दी जाये क्योंकि उनके राजनैतिक विचारधाराओं और पूर्वाग्रह के चलते जिस तरह से अधिकांश मामले कोर्ट में पहुँचने लगे हैं तो क्यों न सरकार गठन में चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के साथ राज्यों के हाई कोर्टों के मुख्य न्यायाधीशों की भूमिका को निर्धारित कर दिया जाये ?  इन दोनों संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोगों के पास राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं लगभग नहीं होती हैं और कम से कम अभी तक तो इन दोनों संस्थाओं के काम काज से आम जनता संतुष्ट ही नज़र आती है तो संविधान के अनुरूप प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री चुनने की ज़िम्मेदरी आखिर उनको क्यों नहीं दी जा सकती जिससे राज्यपाल के अनावश्यक पद पर खर्च होने वाले करोड़ों रुपयों को बचाने के बारे में सोचने की ज़िम्मेदारी आखिर किसकी है ?  देश में सरकार के खर्च को कम करने में लगे हुए वित्त मंत्री को इस दिशा में कानून मंत्रालय के साथ विचार विमर्श करना चाहिए जिससे इस फालतू पद को समाप्त किया जा सके। क्या राजनीति के बूढ़े शेरों के आरक्षित अभ्यारण्य बन चुके राजभवनों को देश की वर्तमान राजनीति पर हमला करने की स्थिति से बचाने के लिए अब इन अभ्यारण्यों को बंद करने का समय नहीं आ गया है ?
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