शनिवार, 14 मार्च 2009
चुनाव में नोट..
चुनाव आते ही किस तरह से आयोग के आदेशों और आदर्श आचार संहिता की धज्जियाँ उड़ाई जाने लगती हैं वह भारतीय लोकतंत्र के लिए निश्चित ही अच्छा शगुन नहीं है। पिछले दो दिनों में जिस तरह से कई राजनेता पैसे बाँटने के मामले में फंसे हैं वह भी विचारणीय है। क्या इन घटनाओं के बाद भी हम यह कह सकते हैं कि हमारा लोकतंत्र परिपक्व हो रहा है ? यहाँ पर मेरे कहने का यह अर्थ कतई नहीं कि हम भारतीय इसके लायक नहीं हैं पर यह भी तो हम लोगों को ही देखना होगा कि वास्तव में क्या होना चाहिए और क्या होने लग रहा है ? जनता की उदासीनता का फायदा हमेशा से लोभी, स्वार्थी नेता उठाते रहे हैं, आज चुनाव के समय में हम सभी को यह देखना होगा कि किसी भी स्तर पर इस तरह की बातों से आगे जाने वाले लोग देश की नियति का निर्धारण न करने पायें। आज के समय जिस तरह से हर जगह पर भ्रष्टाचार का बोलबाला होता जा रहा है उससे किस तरह से निजात पायी जाए यही चिंता का विषय होना चाहिए। जब भी लगे कि कोई नेता लोकतंत्र का ग़लत इस्तेमाल कर रहा है तो उसका विरोध भी करना सीखिए क्योंकि देश हमारा है और देश के लिए कुछ करने का ज़िम्मा केवल सैनिकों का ही तो नहीं हो सकता है न ? हमे भी भारत माँ का सिपाही बनना है तो हम सभी को किसी न किसी कुर्बानी करनी ही होगी। नोट के बदले वोट मांगने वाले नेताओं के मुंह पर सच्चाई का तमाचा जड़ना ही होगा तभी तो हमारा देश आगे जा पायेगा.
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