बुधवार, 8 जुलाई 2009
सावन के बहाने
फिर से लग गया
सावन का महीना,
मन में झूले,
पुरवा हवा,
रिमझिम बरसात
की याद...
उतरती हुई जुर्राब की तरह
उलटती चली गई।
फिर से सोचा कि
काश ! बरस जाते बदरा
एक समान पूरी धरती पर
माँ के निश्छल प्यार के समान..
कहीं बाढ़ कहीं सूखा
क्यों है अब स्थायी भाव ?
भीग जाता प्रेमी का मन
किसान का खेत
अर्थ व्यवस्था में होते नव अंकुरण....
पर किसी का क्या दोष ?
हम ही नहीं रख पाए प्रकृति की थाती
को संजो कर,
लूट लिया जो मिल गया
बिना किसी मोल
अब तो चुकाना ही होगा ना
जीवन में यह क़र्ज़
हर बार नाप-तोल ....
पहली बार अपनी कविता को यहाँ इस ब्लॉग पर ला रहे हैं अभी तक सारी कवितायें केवल कविता वाले ब्लॉग मेरी लेखनी मेरे भाव पर ही उपलब्ध थीं..
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
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वाह-वाह बहुत सुन्दर कविता
जवाब देंहटाएं---
नये प्रकार के ब्लैक होल की खोज संभावित
sundar rachana
जवाब देंहटाएंसुन्दर-अति सुन्दर!!
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