शुक्रवार, 9 जनवरी 2009
झारखण्ड में अब क्या ?
राजनैतिक बेशर्मी का एक और नमूना हम लोगों को अभी देखना है जो की झारखण्ड में दिखाई देगा. नेताओं से किसी भी प्रकार की शुचिता की आशा करना ही मूर्खता है पर हम सभी यह मान लेते हैं की यह अगली बार नहीं होगा. शिबू सोरेन उर्फ गुरूजी जिस तरह से अपना चुनाव हार गए हैं तो उन्हें अपने पद से हट ही जाना चाहिए पर यह देश का दुर्भाग्य है कि वे आसानी से तो नहीं जायेंगें. वर्तमान में जो परिस्थितियां हैं तो उनसे जाने के लिए कहा भी जा सकता है पर कोई किसी को धक्का देकर तो काम नहीं चला सकता. आज देश लगभग चुनावी रूप कि ओर जा रहा है जिससे कोई भी शुचिता की बात अपने वोट बढ़ाने के लिए कर सकता है. अतः कांग्रेस भी गुरूजी से कह सकती है कि हमने तो आपका मन पसंद झुनझुना पकड़ा दिया था अब आप ही उसको बचा नहीं पाए तो हमारी क्या ग़लती है ? अब तो आप को चले ही जाना चाहिए. वैसे भी अब तो मई में आम चुनाव होने ही हैं तो किसी अविश्वास प्रस्ताव के लिए भी गुरूजी की कोई अहमियत नहीं रह गई है. इन परिस्थियों में फिर से झारखण्ड के हिस्से में दूर की कौड़ी के रूप में कोड़ा का मधु ही बचा है. देश का एक अत्यन्त समृद्ध राज्य जो इन नेताओं की करनी के कारण ही पिछड़ा है जिस को बिहार से इसलिए ही अलग किया गया कि इसका विकास हो पर वहां पर नेताओं का यह खेल जनता की आशाओं को पानी में डुबाये दे रहा है. अब ऐसी परिस्थियों में जब सरकार का ध्यान विकास पर होना चाहिए तो वो अपनी कुर्सी कि डंडे पकड़ कर ही बैठी रहती है, तो अगर पीड़ित व्यक्ति पर नक्सली अपना प्रभाव जमा लेते हैं तो किसी और को दोष कैसे दिया जा सकता है ?
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