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बुधवार, 14 जनवरी 2009

संजय पर एके ४७

एक संजय दत्त के आने से राजनीति में किस तरह से कीचड़ उछलना शुरू हो चुका है. जो लोग अपना जीवन नेता बनकर ही काट रहे थे की उनको पता नहीं क्या सोच कर इतना डर लगा की संजय दत्त के आने से उनकी दुकान बंद हो जायेगी. संजय ने अपनी गलती मान ली थी फिर आज भी उनको क्यों इस तरह से समझा जाता है. एक व्यक्ति जो कभी नशे का आदी था आज उन सब से उबर कर एक साफ़ सुथरी छवि बनाने में लगा है फिर क्यों कोई उनको जीने नहीं देना चाहता ? शिबू सोरेन, आडवानी आदि पर भी तो मुक़दमे थे पर क्या वो चुनाव नहीं लड़े ? तो आज संजय की उम्मीदवारी पर इतना हल्ला क्यों ? लखनऊ से बसपा के प्रत्याशी अखिलेश दास यह कदम उठा कर अपना काम तमाम कर चुके हैं. अगर जल्दी ही उनकी विदाई होती दिखे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. शायद वे यह भूल गए हैं कि अब वे कांग्रेस में नहीं बसपा में हैं और वहां पर कोई लोकतंत्र नहीं है जो माया कहती हैं वही अन्तिम है ? हर जगह से मायावती और अखिलेश के होर्डिंग हटा कर ही क्यों संजय पर एके ४७ क्यों तानी जा रही है ? क्या किसी और को ये तुच्छ नेता देश की सेवा करते नहीं देख सकते हैं ? आज नेता से घटिया इस दुनिया में कोई नहीं है. इनके पास सब कुछ है पर इन्हें पता नहीं और क्या चाहिए ? इस एक कदम ने संजय का काम लखनऊ में तो आसान ही कर दिया है. बसपा जैसी पार्टी यह लड़ाई लड़ने से पहले ही हार चुकी है क्योंकि उसके नेता जो कदम उठा रहे हैं वे हताशा से भरे लगते हैं.

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