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सोमवार, 2 मार्च 2009

फिर से फागुन आया

इस बार भी बसंत के साथ फागुन आ ही गया पर क्या इस बार आपने देखा कि इस बार कुछ सन्नाटा सा है ... कोई विशेष कारण तो समझ में नहीं आता पर शायद चुनाव की आहट ने हमारे प्यारे राजनेताओं के फागुन की मस्ती को ही लील लिया है। अब फागुन मनाएं या लोक-सभा का टिकट पक्का कराएँ ? कहीं ऐसा न हो कि फागुन के चक्कर में दूसरे हमारा टिकट ही ले भागे और हम गरीब की सुंदर पत्नी की तरह दूसरों को रंग लगाने के खेल में ही खुश होते रहें ? नहीं भाई हम तो अपना टिकट ही पक्का करायेंगें तभी फागुन होगा वरना हमारी होली तो हो लेगी और हम लोक-सभा का जाता हुआ कारवां देखते रहेंगें कुछ धूल प्रसाद के रूप में जनता पर भी पड़ ही जायेगी... पर नहीं भाई हमें तो ख़ुद ही धूल उडानी है दूसरों की उड़ाई हुई धूल पर हमें खुशी नहीं होने वाली हैं॥ हमें तो अब चन्द्र खिलौना ही चाहिए और वह भी अपना वाला, जिसमें हमें बहुत सारी सुविधाएँ मिलें हम अपना वेतन ख़ुद ही आगे बढ़ा सकें, सोम दा ने बिल्कुल सही कहा है कि हम अपने आप ही अपना वेतन भी तय कर लेते हैं। अब हम यह भी तो नहीं कह सकते कि तुम लोक-सभा में चले जाओ और हम यहीं पर ठीक हैं। हम तो तुम्हें नहीं जाने देंगें हम तो जान ही लड़ा देंगें ऐसे कैसे कि तुम वहां संसद में और हम यहाँ सड़कों पर... अब मुझे नहीं मानना फागुन, जब चुनाव जीत लूँगा तभी मेरा फागुन होगा मनहूस मत बनो कहीं होली के बाद ही मुहर्रम न देखना पड़े तो बस हम तो लगे हैं टिकट की लाइन में ...

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