आज कल चुनाव के कारण बहुत से ऐसे काम जो बिना किसी देर के हो जाने चाहिए नहीं हो पा रहे हैं। इस सारे मसले में ज़रा इस बात पर ध्यान दें कि गर्मियों के कारण आज कल ग्रामीण क्षेत्रों में आग लगना एक सामान्य घटना है और इस प्राकृतिक आपदा के समय सभी को तुंरत सहायता की आवश्यकता होती है । आचार संहिता ने ऐसा कबाड़ा किया है कि कोई भी अपने मन से कुछ भी तेज़ी से नहीं कर सकता है। यदि प्रशासनिक अधिकारी तेज़ी दिखाते हैं तो विपक्षी चिल्लाने लगते हैं कि सरकार वोट के लालच में यह सब कर रही है। नेता तो चाहते हैं कि वोटों के लालच में कुछ कर ही दें पर चुनाव आयोग का भय उनको भी कुछ करने से रोक देता है। सवाल यह है कि जब हमारे देश में समाज सेवी संगठन भी नेताओं की जेब में ही हैं तो इन पीडितों की मदद आख़िर कहाँ से हो पायेगी ? मेरे विचार से जब चुनाव आयोग इतने सारे प्रेक्षक भेज सकता है तो किसी एक को यह भी अधिकार दे देने चाहिए कि आपदा के समय वे इस बात का निर्णय उसी प्राथमिकता से करें जैसे अपने गृह राज्य में किया करते हैं। उनको चुनाव आयोग का भय नहीं हो वे निष्पक्ष हो कर पीडितों तक मदद पहुँचने का काम करते रहें । ईश्वर न करे कि कोई ऐसी घटना हो पर कुछ होने पर एक तंत्र तो होना ही चाहिए जो अपना काम ठीक से कर सके और सही समय पर सही मदद पहुँचने का कार्य कर सके। चुनाव के समय वोटरों की मदद करना मैं बुरा इस लिए भी नहीं मानता क्योंकि इस चुनावी मौसम के बाद तो जनता को ये अगले चुनाव में ही दिखेंगें। अगर किसी तरह से ये ५ साल में एक बार भी मदद कर रहे हैं तो उन्हें करने देना चाहिए। आम नागरिक को नेताओं से क्या काम होता है ? शायद कुछ भी नहीं, आज के विद्वेष भरे माहौल में कोई भी यह नहीं चाहता कि नेता किसी भी मौके पर उसके यहाँ फटके। पता नहीं कब दूसरे को बुरा लग जाए और वह सरकारी तंत्र का दुरूपयोग करने में लग जाए। फिल हाल कुछ ऐसा भी किया जाना चाहिए कि चुनाव के समय मानवीयता बनी रहे और नेता किसी तरह से मानवीयता को वोट में बदलने का खेल न शुरू कर दें ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
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