इस हफ्ते लगता है कि लिखने के लिए कुछ अच्छा नहीं मिल पायेगा जिस पर लिख सकूं। बीते ३ दिनों में सीतापुर के बीच से बहने वाली सरायन नदीं के आस-पास नवजात भ्रूण मिलने का सिलसिला जारी है। अब कौन और किन परिस्थियों में यह सब कर रहा है किसी को नहीं पता परन्तु एक बात तो है कि हम अपने को चाहे जितना सभ्य, चरित्रवान, संस्कारी आदि कहते रहें पर इस तरह का घटियापन हमारे से दूर होना ही नहीं चाहता। यदि जीवन को सहारा देने की इच्छा नहीं है तो किस लिए एक बच्चे को इस दुनिया में लेन की कोशिश की जाती है ? क्यों नहीं ऐसे लोग सोचते कि उनके माँ-बाप ने यदि इस तरह से किया होता तो वे भी कुछ लोगों के लिए जबानी ख़बर बन कर ख़त्म हो चुके होते। आज की तरह उनकी लाश को किसी अखबार का पन्ना भी नसीब नहीं होता। जीवन कितना सुकून देता है और मौत किस तरह से तोड़ देती है ? मैं एक चिकित्सक हूँ अरमान फिल्म का अमिताभ बच्चन की कही बात याद आ जाती है कि जब कोई मर जाता है तो चिकित्सक हार जाता है। हमारा सारा ध्यान एक जान को बचा लेने में ही लगा रहता है पर क्यों कुछ लोग एक मासूम जान को इतनी आसानी से मार डालते हैं ? अब यह तो नहीं पता कि इस प्रक्रिया में सदैव बच्चे की माँ भी शामिल होती है या नहीं पर यह काम उससे सहमति या ज़ोर से करवा ही लिया जाता है । अब आप लोग यह मत पूछना कि वो भ्रूण किसके थे क्योंकि कोई अपने "वंश को चलाने वाले" को कभी भी घूरे पर या नदी में नहीं फेंकता है , यह तो केवल "घर का बोझ समझी जाने वाली कोई लड़की" ही होती है जिसके बिना ऐसे मानसिक रोगियों का वंश नहीं चल सकता है ? यह मामला सीधे तौर पर कन्या भ्रूण हत्या सरीखा ही लगता है पर चुनाव में दबी जा रही पुलिस चुनाव कराये या सामाजिक सरोकार निभाए। कोई नेता भी इस मसले पर दो आंसू बहाने नहीं आया शायद चुनाव आयोग का डर होगा क्योंकि यह आधी, दबी-कुचली, मर खाने वाली, प्रताड़ना सहने वाली, फिर भी वंश को आगे बढ़ाने वाली आबादी की कहानी है और दुर्भाग्य से उसे भी लोक-तंत्र के इस महायज्ञ में आहुति डालने के लिए चुना गया है ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
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