चित्रकूट के एक गाँव में जिस तरह से ५० घंटे से अधिक समय तक एक इनामी डाकू पुलिस को उलझाये रखने में सफल रहा वह देश के सबसे बड़े राज्य की पुलिस के लिए चिंता की बात है। सबसे बड़ी बात यह भी है की उसके पास वो हथियार थे जो सरकार द्वारा पुलिस को दिए जाते हैं । यहाँ पर यह कहा जा सकता है की ये हथियार पुलिस कर्मियों की हत्या के बाद लूटे भी हो सकते हैं पर देश में पुलिस जिस तरह से कार्य करती है वह सभी को पता है फिल हाल अपने कुछ जांबाज़ अफसरों/जवानों को खोने के बाद यह घड़ी भी उ०प्र० पुलिस को देखने को मिली।
देश में पुलिस फर्जी मुठभेड़ दिखने में जितनी मुस्तैद रहती है वैसी कोई भी चपलता यहाँ पर नहीं दिखाई दी। इसका असर यह भी हो सकता है कि अब पुलिस भी डाकुओं का राजनैतिक रसूख परखने के बाद ही कोई कार्य वाही करना चाहती है । कितनी आसानी से पुलिस मुठभेड़ को बता देती है और अपनी पीठ ख़ुद ही ठोक लेती है पर जब इस तरह की असली मुठभेड़ होती है तो पुलिस की क्षमता पर ही संदेह होने लगता है ? पता नहीं किस रणनीति के तहत इतनी बड़ी संख्या में पुलिस बल को वहां पर लगाया गया और बाद में बड़े अधिकारियों के घायल होने पर फिर से रणनीति बनाई गई जो कारगर भी रही। हो सकता है कि जिले के पुलिस अधिकारियों को ही खतरे का अंदाजा न रहा हो और उन्होंने इस को सामान्य रूप में लिया हो या फिर एक डाकू समझ कर उसको हलके में लिया गया हो जिसकी कीमत बहादुर जवानों ने अपनी जान देकर चुकाई।
यहाँ पर मेरे कहने का मतलब यह नहीं कि पुलिस काम नहीं करना चाहती बल्कि यह है कि राजनैतिक हस्तक्षेप ने पुलिस के काम काज पर कितना असर डाल दिया है ? जवान अफसर बहादुर हैं और उन्होंने अपनी जान की बाज़ी लगाकर दिखा भी दिया कि वे अपने कर्तव्य में पीछे हटने वाले नहीं हैं पर क्या कोई नेता इस बात की आहट सुनना चाहता है ? आज अधिकारियों के तबादले दैनिक तौर पर होने लगे हैं बहुत बार अधिकारियों को पूरे प्रदेश के बारे में पूरी जानकारी ही नहीं हो पाती है और वे इधर से उधर अपना सामान उठाये घूमते फिरते हैं। कुछ बातें तो अब ईमानदारी से करनी ही होंगी वरना इस तरह से डाकू से निपटने में इतना समय लगा तो आतंकी हमले के समय पुलिस किस भूमिका में रहेगी ? आज इस बात पर हम सभी को विचार करना ही होगा तभी जाकर कुछ सही हो पायेगा॥
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
sahee aur khree baat .
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