आज की इस ख़बर ने तो मानवता को शर्मशार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पंचायत, पुलिस, प्रशासन, सरकार और स्वांग करने वाले इस देश के अन्य तंत्र भी क्या किसी ऐसी लड़की को न्याय दिला पायेंगें ? कहानी में मार्मिकता भी है, बेबसी भी, एक ११ साल की बच्ची से दुराचार भी है तो पुलिस का निकम्मा पन भी। जाति-बिरादरी की बात करने वालों के लिए यहाँ कोई कारण नहीं था इस तरह से हरकतें करने का ? फिर भी जो कुछ हुआ वह समाज को कलंकित करने वाला ही तो था ?
पूरी घटना तो सिर्फ़ इतनी सी है कि घुमंतू जाति के लड़के लड़की में प्यार हो जाता है और वो दोनों घर से भाग जाते हैं। पंचायत बैठती है और लड़के के बाप पर ५०,००० का जुर्माना लगाया जाता है । जुर्माना अदा न कर पाने पर लड़के की ११ साल की बहन को एक परिवार के पास गिरवी रख दिया जाता है ? फिर शुरू हो जाता है दरिंदगी का हैवानियत का वो खेल जो शायद मनुष्यों को जानवरों से भी बदतर बना देता है ? ११ साल की लड़की के साथ ५ लोग सामूहिक दुराचार वो भी महीनों तक करते रहें जब अदालत आदेश दे तो पुलिस की आँखें खुलें ? क्या अब भी हमें पुलिस की ज़रूरत है ? कुछ हो न हो उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक के लिए काम बढ़ गया अब उन्हें इस लड़की को भी उसके घर तक जाकर राहत का चेक देना पड़ेगा ? आख़िर सूबे की मुखिया का आदेश जो है ?
किसी अवयस्क लड़की ने अपने भाई के प्यार करने की कीमत अपना सब कुछ लुटा कर चुकाई तो इससे ज़्यादा शर्मनाक क्या हो सकता है ? प्रेम करना गुनाह तो नहीं और जाति की पंचायत जिसने लड़की को गिरवी रखने की बात की थी तो वह उस लड़की की सुरक्षा की बात क्यों नही कर सकी ? पञ्च बनने का इतना ही शौक था तो न्याय तो कर देते ? हद तो तब है की पुलिस केवल लोकसभा का चुनाव ही कराती रही ? क्या पूरे जनपद के आला अधिकारियों को इस तरह के मातहतों के साथ काम करने के दंड में "सेवा से मुक्त" नहीं किया जाना चाहिए ? इस बात की ज़िम्मेदारी लेते हुए क्या किसी को नैतिकता नहीं दिखानी चाहिए ?
नहीं कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि अब सरकार का ध्यान उप चुनावों में है , लोक-सभा में किरकिरी हुई तो क्या विधान-सभा में दिखा देंगें ? कोई कुछ करे या न करे सरकार अपने में मस्त है दुःख की बात तो यह है कि किसी मासूम कि इज्ज़त को भी अब दलित, पिछड़े आदि के चश्में से देखा जाने लगा है। दलितों पिछडों की बात करने वाले प्रदेश में रोज़ ही इस तरह की घटनाएँ आख़िर किस तरह के प्रशासन की ओर इशारा करती हैं ? बचे हैं कोई महिला आयोग, बाल आयोग या सभी को अपनी कुर्सी की ही चिंता है ? सभी कि आंखों पर पट्टी है या सब अंधे हो गए हैं ? सबको दिख रहा है पर कोई देखना नहीं चाहता क्योंकि गाँव की चिंता किसे है ? शहर में होता तो वातानुकूलित गाड़ियों से जाकर पत्रकार वार्ता ही कर देते और कुछ चेतावनी जारी कर दी जाती ...... धिक्कार है इस व्यवस्था पर ....... थू ...
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/4655757.cms
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
पूरी घटना तो सिर्फ़ इतनी सी है कि घुमंतू जाति के लड़के लड़की में प्यार हो जाता है और वो दोनों घर से भाग जाते हैं। पंचायत बैठती है और लड़के के बाप पर ५०,००० का जुर्माना लगाया जाता है । जुर्माना अदा न कर पाने पर लड़के की ११ साल की बहन को एक परिवार के पास गिरवी रख दिया जाता है ? फिर शुरू हो जाता है दरिंदगी का हैवानियत का वो खेल जो शायद मनुष्यों को जानवरों से भी बदतर बना देता है ? ११ साल की लड़की के साथ ५ लोग सामूहिक दुराचार वो भी महीनों तक करते रहें जब अदालत आदेश दे तो पुलिस की आँखें खुलें ? क्या अब भी हमें पुलिस की ज़रूरत है ? कुछ हो न हो उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक के लिए काम बढ़ गया अब उन्हें इस लड़की को भी उसके घर तक जाकर राहत का चेक देना पड़ेगा ? आख़िर सूबे की मुखिया का आदेश जो है ?
किसी अवयस्क लड़की ने अपने भाई के प्यार करने की कीमत अपना सब कुछ लुटा कर चुकाई तो इससे ज़्यादा शर्मनाक क्या हो सकता है ? प्रेम करना गुनाह तो नहीं और जाति की पंचायत जिसने लड़की को गिरवी रखने की बात की थी तो वह उस लड़की की सुरक्षा की बात क्यों नही कर सकी ? पञ्च बनने का इतना ही शौक था तो न्याय तो कर देते ? हद तो तब है की पुलिस केवल लोकसभा का चुनाव ही कराती रही ? क्या पूरे जनपद के आला अधिकारियों को इस तरह के मातहतों के साथ काम करने के दंड में "सेवा से मुक्त" नहीं किया जाना चाहिए ? इस बात की ज़िम्मेदारी लेते हुए क्या किसी को नैतिकता नहीं दिखानी चाहिए ?
नहीं कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि अब सरकार का ध्यान उप चुनावों में है , लोक-सभा में किरकिरी हुई तो क्या विधान-सभा में दिखा देंगें ? कोई कुछ करे या न करे सरकार अपने में मस्त है दुःख की बात तो यह है कि किसी मासूम कि इज्ज़त को भी अब दलित, पिछड़े आदि के चश्में से देखा जाने लगा है। दलितों पिछडों की बात करने वाले प्रदेश में रोज़ ही इस तरह की घटनाएँ आख़िर किस तरह के प्रशासन की ओर इशारा करती हैं ? बचे हैं कोई महिला आयोग, बाल आयोग या सभी को अपनी कुर्सी की ही चिंता है ? सभी कि आंखों पर पट्टी है या सब अंधे हो गए हैं ? सबको दिख रहा है पर कोई देखना नहीं चाहता क्योंकि गाँव की चिंता किसे है ? शहर में होता तो वातानुकूलित गाड़ियों से जाकर पत्रकार वार्ता ही कर देते और कुछ चेतावनी जारी कर दी जाती ...... धिक्कार है इस व्यवस्था पर ....... थू ...
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कितना थूकेंगे? सारा थूक खत्म हो जाएगा, परन्तु हमारा समाज लज्जित नहीं होगा। जिस समाज में स्त्री सदा से जायदाद मानी गई है वहाँ यही सब होगा।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
आप की बात एकदम सही है....
जवाब देंहटाएंआप का ब्लाग अच्छा लगा...बहुत बहुत बधाई....
एक नई शुरुआत की है-समकालीन ग़ज़ल पत्रिका और बनारस के कवि/शायर के रूप में...जरूर देखें..आप के विचारों का इन्तज़ार रहेगा....