जिस तरह से सरकार द्वारा प्रस्तावित लोकपाल विधेयक पर लगातार तकरार बढ़ती जा रही है उससे यही लगता है कि जिस मंशा के साथ सरकार ने इसे पेश किया है वह भी पूरी नहीं होने वाली है. ऐसी स्थिति में विपक्ष भी जिस तरह से ग़ैर ज़िम्मेदाराना रुख अपना कर बैठा हुआ है उससे भी यही साबित होता है कि किसी को भी देश की परवाह नहीं है और हर एक को केवल अपने हित ही दिखाई दे रहे है ऐसे में अन्ना की मांगें किस तरह से पूरी हो पाएंगीं ? यह सही है कि आज जिस तरह से सरकार ने कुछ मुद्दों पर सहमति दिखाते हुए उन्हें विधेयक में शामिल करने के बारे में संशोधन कर लिए हैं और बीच का रास्ता निकलने की कोशिश की है तो ऐसे में अन्ना को भी सरकार पर केवल दबाव डालने के स्थान पर कुछ ऐसे सुझाव देने चाहिए जिससे संविधान की भावना के अनुकूल लोकपाल भी बनाया जा सके और उस पर काम का इतना बड़ा बोझ भी न हो कि वह आने वाले समय में काम ही न कर पाए ? जब आज का प्रस्तावित लोकपाल काम करने लगे तो आने वाले कुछ वर्षों में इसके काम काज की समीक्षा की जानी चाहिए और इसमें सामने आने वाली कमियों को दूर किया जा सकेगा.
सरकार ने जिस तरह से अन्ना के लोकपाल को कई हिस्सों में मान लिया है उससे यही लगता है कि कार्मिक मंत्रालय और कानून मंत्रालय ने इस बारे में सही ढंग से राय मिलायी है किसी भी एक व्यक्ति या संस्था के पास इतना अधिक काम हो जाने के बाद उससे किस हद तक न्याय हो पायेगा यही सोचने का विषय है क्योंकि केवल कहने के लिए लोकपाल को सर्वोच्च बना देने से कुछ हासिल नहीं होने वाला है. आज देश में भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए राज्यों ने जो संस्थाएं बनायीं हैं वे किस तरह से काम कर रही है यह हम सभी जानते हैं पर साथ ही हमें इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि किसी भी परिस्थिति में कोई संस्था या व्यक्ति इतनी शक्तिशाली न हो जाये जो देश के संविधान के लिए ही चुनौती बन जाये ? जिस तरह से शिवसेना ने प्रस्ताव दिया था कि उपराष्ट्रपति को ही लोकपाल बना दिया जाये तो यह बहुत अच्छा सुझाव था पर हर व्यक्ति को अपनी मूंछों पर ताव देना है इसलिए उसके इस अच्छे प्रस्ताव को भी मानने की ज़हमत नहीं उठाई गयी. प्रयोग के तौर पर इस सरकारी प्रस्ताव को अपनाया जा सकता है पर इस पर पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता है..
जिस तरह से आरक्षण की राजनीति इस जगह भी घुस गयी तो हो सकता है कि आने वाले समय में ये नेता भ्रष्टाचार फ़ैलाने के लिए भी आरक्षण की मांग करने लगें कि इसमें भी ५० % का आरक्षण चाहिए या होना चाहिए ? अब कोई बीच का रास्ता निकालने की ज़रुरत है और अब भाजपा को किनारे करने के लिए हो सकता है कि इस विधेयक पर ग़ैर भाजपा दल किसी तरह से सरकार को समर्थन दे दें क्योंकि बिना उनके समर्थन के राज्य सभा में इस विधेयक के पारित होने की सम्भावना बिलकुल नहीं है. भाजपा को अपनी बात खुलकर कहनी चाहिए आख़िर क्या कारण हैं कि जब देश को सभी दलों के विचारों की ज़रुरत है तो कुछ दल केवल किनारे बैठकर मज़े लेना चाहते हैं ? ऐसे दलों को यह देश कभी नहीं माफ़ करेगा क्योंकि कुछ भी हो इसके लिए ये सभी दल ज़िम्मेदार कहे जायेंगें और आने वाला समय यह कहने में हिचकेगा नहीं कि ये दल चुपचाप बैठे रहे थे. आज इस तरह के संघर्ष के स्थान पर सभी को अन्ना के साथ बैठकर किसी नतीजे पर पहुँचने के प्रयास करने चाहिए. आख़िर क्यों केवल सरकार पर ही इस बात की ज़िम्मेदारी डाली जाये भले ही वो कैसा भी विधयक लाकर रख दे ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
सरकार ने जिस तरह से अन्ना के लोकपाल को कई हिस्सों में मान लिया है उससे यही लगता है कि कार्मिक मंत्रालय और कानून मंत्रालय ने इस बारे में सही ढंग से राय मिलायी है किसी भी एक व्यक्ति या संस्था के पास इतना अधिक काम हो जाने के बाद उससे किस हद तक न्याय हो पायेगा यही सोचने का विषय है क्योंकि केवल कहने के लिए लोकपाल को सर्वोच्च बना देने से कुछ हासिल नहीं होने वाला है. आज देश में भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए राज्यों ने जो संस्थाएं बनायीं हैं वे किस तरह से काम कर रही है यह हम सभी जानते हैं पर साथ ही हमें इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि किसी भी परिस्थिति में कोई संस्था या व्यक्ति इतनी शक्तिशाली न हो जाये जो देश के संविधान के लिए ही चुनौती बन जाये ? जिस तरह से शिवसेना ने प्रस्ताव दिया था कि उपराष्ट्रपति को ही लोकपाल बना दिया जाये तो यह बहुत अच्छा सुझाव था पर हर व्यक्ति को अपनी मूंछों पर ताव देना है इसलिए उसके इस अच्छे प्रस्ताव को भी मानने की ज़हमत नहीं उठाई गयी. प्रयोग के तौर पर इस सरकारी प्रस्ताव को अपनाया जा सकता है पर इस पर पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता है..
जिस तरह से आरक्षण की राजनीति इस जगह भी घुस गयी तो हो सकता है कि आने वाले समय में ये नेता भ्रष्टाचार फ़ैलाने के लिए भी आरक्षण की मांग करने लगें कि इसमें भी ५० % का आरक्षण चाहिए या होना चाहिए ? अब कोई बीच का रास्ता निकालने की ज़रुरत है और अब भाजपा को किनारे करने के लिए हो सकता है कि इस विधेयक पर ग़ैर भाजपा दल किसी तरह से सरकार को समर्थन दे दें क्योंकि बिना उनके समर्थन के राज्य सभा में इस विधेयक के पारित होने की सम्भावना बिलकुल नहीं है. भाजपा को अपनी बात खुलकर कहनी चाहिए आख़िर क्या कारण हैं कि जब देश को सभी दलों के विचारों की ज़रुरत है तो कुछ दल केवल किनारे बैठकर मज़े लेना चाहते हैं ? ऐसे दलों को यह देश कभी नहीं माफ़ करेगा क्योंकि कुछ भी हो इसके लिए ये सभी दल ज़िम्मेदार कहे जायेंगें और आने वाला समय यह कहने में हिचकेगा नहीं कि ये दल चुपचाप बैठे रहे थे. आज इस तरह के संघर्ष के स्थान पर सभी को अन्ना के साथ बैठकर किसी नतीजे पर पहुँचने के प्रयास करने चाहिए. आख़िर क्यों केवल सरकार पर ही इस बात की ज़िम्मेदारी डाली जाये भले ही वो कैसा भी विधयक लाकर रख दे ?
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कोई उम्मीद नहीं.
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