रविवार, 28 दिसंबर 2008
युद्ध या युद्ध की आहट ?
युद्ध उन्माद है या आवश्यकता ? शायद ही इस बात पर कोई एक राय बन पाए.. फिर भी आज जिस तरह से मीडिया द्वारा एक छद्म युद्ध हो जाने की बात की जा रही है वह बहुत ही अजीब सी लगती है. हो सकता है कि कुछ लोग मेरी बात से सहमत न हों पर यह तो वे भी जानते हैं कि युद्ध ढिंढोरा पीट कर नहीं किए जाते. आज जब मुंबई हमले के बाद सभी सशंकित हैं कि कहीं भारत पाकिस्तान पर हमला न कर दे तो मैं सभी चिंता करने वाले दुनिया के ठेकेदारों से पूछना चाहता हूँ जब एक समूह किसी को बराबर छेड़ता रहेगा तो कब तक संयम बना रहेगा ? युद्ध अच्छी बात नहीं है पर रोज़ रोज़ के अघोषित युद्ध से अच्छा है कि एक बार लड़ ही लिया जाए. पाकिस्तान का लोकतंत्र और भारत का लोकतंत्र बहुत बड़े अन्तर को समझाता है. यहाँ हर सरकार को निश्चित समय पर जनता से आदेश लेना होता है जबकि पाकिस्तान में इस्लाम या धर्म की दुहाई देकर सेना वहां के नेताओं को बहुत बार बंधक बना चुकी है और वहां की सेना निरंकुश है जो किसी की भी नहीं सुनती है. इसलिए जब तक पाकिस्तान कोई ठोस कदम न उठा ले तब तक इस बार युद्ध का अंदेशा तो बना ही रहेगा. किसी भी युद्ध की स्थिति में दोनों ही देशों को बहुत कुछ गवां देना होगा. पर राष्ट्र के नाम पर यह सब मायने नहीं रखता है. आज जब भी हम शान्ति की बात करते हैं आतंक के सफाए की बात करते हैं और पाकिस्तान को एक सहयोगी बताया जाता है तो निश्चित ही अमेरिका यह साबित करता है कि उसने अपनी गलतियों से कुछ भी नहीं सीखा है और शायद बिगडे हुए लड़के के मजबूर बाप की तरह वह भी अपनी लाचारी ही प्रर्दशित करता है. अफगानिस्तान से जुड़ी सीमा पर अमेरिका बम गिरा सकता है तो हमारे यहाँ विध्वंस के लिए उत्तरदायी लोगों से देश को बचने के लिए हम कब तक चुप बैठे रहेंगे ? एक बात सभी जानते हैं की हमारे प्रधानमंत्री बहुत सौम्य हैं उन्हें वोटों की भी चिंता नहीं है बस यही बात अमेरिका-पाकिस्तान को सोने नहीं दे रही है. एक नेता बहुत से ग़लत कदम उठा लेता है पर एक प्रशासनिक व्यक्ति कभी भी कड़े कदम उठाने से नहीं डरता. शास्त्रीजी को भी लोग कमज़ोर मानते थे पर ६५ के युद्ध में उन्होंने जिस तरह से देश को झकझोर दिया था वह आज भी लोगों के दिमाग से नहीं निकला है. मनमोहन सिंह निश्चित ही मन को मोहने वाले हैं पर सत्य की रक्षा में देश की अस्मिता के प्रश्न पर उनकी सौम्यता दृढ़ता में बदल सकती है बस दुनिया इसी चिंता में घुली जा रही है. आर्थिक मंदी के चलते अमेरिकी अर्थ व्यवस्था वैसे ही चौपट हो रही है ऐसे में भारत का युद्ध विश्व की अर्थ व्यवस्था को हिला देने की शक्ति तो रखता ही है. वर्तमान में मंहगाई भी काबू में आ रही है तो घरेलू मोर्चों पर भी सरकार कुछ संभल चुकी है ऐसे में युद्ध की बात भी की जा सकती है. युद्ध पहली प्राथमिकता नहीं होना चाहिए पर आवश्यकता पड़ने पर युद्ध से भागने से अब काम नहीं चलने वाला है..... देश कुछ ठोस चाहता है और देखना है कि वह किस तरह से मिल पायेगा..?
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