भारतीय राजनीति में आख़िर कल वह दिन आ ही जाएगा जब पुरानी तलवारों को चुप चाप बेशर्मी से किनारे रख दिया जाएगा, कल तक जो खुले आम एक दूसरे को गालियाँ देते फिर रहे थे अब वे न्यूनतम साझा कार्यक्रम की बातें करेंगें। आख़िर देश का हित जो ठहरा अब देश इतना अमीर भी नहीं है कि इतनी जल्दी फिर से चुनाव का बोझ उठा सके इसलिए ये नेता अपने आप ही यह फ़ैसला कर लेते हैं कि जनता इस फैसले में उनके साथ है और देश हित में वे कोई भी कुर्बानी देने को तैयार हैं। वाह रे किस्मत जिनको हम फूटी आंखों से भी नहीं देखना चाहते वे अब हमारे भाग्य विधाता बन बैठेंगें। वह भी हमारी सहमति से नहीं वरन अपनी बेशर्मी से। अब नेता और शर्म दो अलग बातें हैं, कुछ भी हो जाए देश पर आंच नहीं आने देंगें ये भारत भाग्य विधाता ? आज ही से ये एक दूसरे से कुछ गुप चुप तरीके से सौदे बाज़ी कर लेंगें और हम किनारे खड़े होकर तकते रह जायेंगें॥ कोई भी नही कहेगा "जय हो" या फिर "भय हो" ????
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
हां भई .. पुराने वैर भाव भूलने के दिन आ गए .. आखिर नेताओं के सामने राष्ट्रहित का सवाल जो है।
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