देश के संविधान ने प्रधानमंत्री को यह अधिकार दिया है कि वे अपने मंत्रिमंडल का चुनाव अपने विवेक से करें पर देश में कुछ कमज़ोर जनाधार होने के कारण सरकारों को सहयोगी दलों की कुछ अनावश्यक बातें भी माननी पड़ती हैं। आज जब नए मंत्रिमंडल में सभी स्थान भरने की कवायद पूरी हो जायेगी तो भी यह प्रश्न तो रह ही जाएगा कि आख़िर क्यों नहीं देश के नेता किसी भी मंत्रालय में काम करने की कोशिश क्यों नहीं करते उन्हें केवल मलाई वाले मंत्रालय ही क्यों दिखाई देते हैं ? यदि काम करने की इच्छा हो तो कहीं भी किया जा सकता है और अगर काम नहीं करना है तो कुछ भी हो वह कम ही लगता है। हारे हुए प्रत्याशियों से कोई तो पूछे कि सांसद नहीं बन पाने की कसक किस हद तक है उनके दिल में ? सांसदों से भी पूछ ही लिया जाए कि कौन मंत्री बनना चाहता है तो राहुल को छोड़ कर सभी तैयार बैठे हैं फिर जब किसी को कोई मंत्रालय दिया जाता है तो काम करने के बजाय वे कोई बड़ा मंत्रालय ही चाहते हैं। देश में काम करना चाहिए सभी मानते हैं और जनता से जुड़े मंत्रालय किस तरह से किसी सरकार की वापसी भी कर सकते हैं यह इस बार पता ही चल गया है। कोई मंत्रालय अच्छा या बुरा नहीं होता बस नेता के काम करने की दिशा और मानसिक दशा ही सारी बातों को सही दिशा में ले जा सकती है। उदाहरण के लिए पिछले रेल मंत्री लालू प्रसाद की ही बात कर सकते हैं कि जब वे रेल मंत्री बने तो लोगों ने कहा कि अब रेल को खा जायेंगें पर उन्होंने चाहे जैसे भी हो रेल में भी लाभ के सपने दिखा ही दिए।
आज कोई भी ग्रामीण विकास, युवा एवं खेल, कपड़ा, महिला आदि मंत्रालय नहीं लेना चाहता। सहयोगी दलों को तो केवल खनिज, रेल, कृषि आदि ही मंत्रालय जैसे लगते हैं बाकी सब तो बेकार ही होते हैं। इस सोच के साथ देश कैसे आगे जा पायेगा ?
अच्छा हो कि ये मंत्री और कुर्सी का झगडा बंद हो और देश के जिन गरीबों ने कांग्रेस को वोट दिया है उसके बारे में भी सोचा जाए तभी "भारत बुलंद" हो पायेगा और दुनिया कहेगी "जय हो".....
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
काश!! इनमें इतना सामर्थय होता..तो फिर इतना सोचना लिखना न पड़ता.
जवाब देंहटाएंराजनीतिक मजबूरियों का सटीक विवेचन किय है आपने।
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }