मुंबई की दो माह की बच्ची जोया को एक दहेज़ के मुक़दमे में आरोपी बना दिया गया जिसके बाद उसकी ज़मानत करानी पड़ी। जिंदगी कितनी बदल सकती है कि कभी जिसके साथ मिलकर जीने और मरने की क़समें खायी जाती हैं वह सब इतना पराया हो जाता है कि उन्हें जेल भेजने में भी सुख का अनुभव होता है। मैं यहाँ पर किसी के सही या ग़लत होने की बात ही नहीं कर रहा हूँ बात तो है कि कुछ भी लिखा दिया जाए और कुछ भी लिख लिया जाए आख़िर यह किस तरह से उचित हो सकता है ? हो सकता है कि किसी एक पक्ष ने कुछ विद्वेष पूर्वक लिखाने की कोशिश की हो पर क्या पुलिस के पास यह अधिकार है कि वह पूरी रिपोर्ट लिखने के बाद अपनी टिप्पणी में यह भी लिख सके कि यह बच्ची अपराध नहीं कर सकती है अतः इसको अभियोजित न किया जाए ? पता नहीं क्या होता जा रहा है इस समाज को ? गलती चाहे जिसकी भी हो पर २ माह की बच्ची की ज़मानत करनी पड़ी और अब उसके घर वाले सुकून में हैं कि पुलिस अब उन्हें नहीं पकड़ पायेगी।
क्या कानून में इस तरह के आरोप लगाने वालों के लिए भी सजा का प्रावधान नहीं होना चाहिए ? जो भी चाहे जब चाहें लिखा दिया बस अगला पक्ष अदालतों में चक्कर लगाता फिरता है साथ ही उसे पुलिस से भी बचना पड़ता है जो उसके पीछे लगी होती है। आज के समय में हम सभी को यह तो सोचना ही होगा कि सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता है, हाँ कभी कभी सत्य कुछ समय के लिए छिप सा जाता है पर इसका मतलब यह तो नहीं होता कि सत्य वहां पर अब नहीं है ? दोषियों को सजा मिले इसलिए ही महिलाओं को सम्मान दिलाने के लिए दहेज़ कानून बनाया गया था पर आज कुछ हद तक जिस तरह से इसका दुरूपयोग होने लगा है वह चिंता का विषय है।
अच्छा हो कि आरोप लगाने से पहले सारी बातों पर विचार कर लिया जाए और सही आरोप लगाये जाए जिससे न्यायालय में पक्ष को मजबूती मिले और दोषियों को सजा भी .......
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
फिर सिद्ध हो गया..कानून अँधा हो न हो, कानून के रक्षक ज़रूर अंधे हैं.
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