उत्तर प्रदेश में मूर्तियों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह से अपना फ़ैसला सुनाया है वह अपने आप में अनूठा है। प्रधान न्यायाधीश ने जिस तरह से अदालत की सीमाओं का उल्लेख किया वह भी विचारणीय है। इस फैसले में साफ़ तौर पर कहा गया की अदालतें राज्य के कामों में दखल नहीं दे सकती हैं किसी को भी अपनी या किसी महापुरुष की मूर्तियाँ लगाने की पूरी छूट है। अदालत केवल तभी हस्तक्षेप कर सकती है जब भ्रष्टाचार का मामला हो या वित्तीय अनियमितता की शिकायतें हों। यह फैसला कई सारे प्रश्नों के उत्तर स्वयं ही दे देता है। आज जब देश की संस्थाओं से नागरिकों का विश्वास उठता जा रहा है तो न्यायालय ही अब ही तक अपनी शुचिता बनाये रखने में सफल रहे हैं। देश को अपने न्याय तंत्र पर पूरा भरोसा है तभी तो इतने विवादित मुद्दे पर न्याय संगत बात कहने में न्यायाधीश द्वय को कोई कठिनाई नहीं होती वे इस मामले को भी उतनी सहजता से ही सुनते हैं जैसे कि अन्य।
यहाँ पर न्यायालय ने अपना काम कर दिया है अब हमारे नेताओं की बारी है कि जिस तरह से अदालतें अपनी सीमायें जानती हैं उसी तरह से नेताओं को भी अपनी सीमायें समझनी चाहिए। देश में बहुत सारी समस्याएँ मुंह बाये खड़ी हैं पर हमारे नेता तो केवल अपने वोट के लिए देश के मर्म पर भी चोट करने से नहीं चूकते ? देश कि अन्य सभी संस्थाएं अपना काम अपनी सीमा में रह कर करना जानती हैं पर पता नहीं कब भारत भाग्य विधाता "विधायिका" इस बात को समझेगी ? आज सभी राज नेताओं के लिए यह आत्म चिंतन का समय है कि वे बैठें और देखें कि जब देश का न्याय तंत्र स्वयं को अपनी सीमाओं में रख सकता है तो नेता क्यों हर बात में सीमाओं का उल्लंघन करते नज़र आते है ? राजनीति में शुचिता की बातें तो बहुत की जाती हैं पर जब कुछ ठोस करना होता हैं तो इन सभी को भाषण भूल जाते हैं और अपने काम के लिए कुछ भी करना याद रहता है।
देश किसी एक तंत्र की मजबूती से नहीं चल सकता हम सभी को आगे आना होगा और इन नेताओं पर दबाव भी बनाना होगा तभी ये लोग कुछ परिवर्तन में भागीदार बनना चाहेंगें.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
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