देश में किस तरह से समस्याओं को देखा जाता है यह केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आज़ाद के बयान से ही समझा जा सकता है। किसी बड़ी समस्या पर कुछ कहने से पहले आज़ाद ने जिस तरह से मामले को हल्का करने की कोशिश की वह किसी भी स्तर पर स्वीकारी नहीं जा सकती है। टी वी कौन देखेगा और कैसे देखेगा ? देश में बिजली का हाल किसी से भी छिपा नहीं है और सरकार के एक संजीदा समझे जाने वाले वरिष्ठ मंत्री का इस तरह से कहना किस दिशा की ओर इंगित करता है ? आज हर व्यक्ति संसाधनों पर दबाव की बात करता है पर यह दबाव क्यों और कैसे आ रहा है इसकी चिंता किसी को भी नहीं है। देश के दूर दराज के इलाकों में मूल भूत सुविधाओं का अभाव ही लोगों को पलायन करने को मजबूर कर देता है । यदि गाँव में रोज़गार और मूल भूत आवश्यकतों की पूर्ति हो जाए तो शायद ही कोई अपना स्थान छोड़ना चाहे ? आज समस्याओं के समाधान के बजाय ऑंखें बंद करने की प्रक्रिया अपनाई जा रही है, जिससे कोई भी समस्या सुलझने की बजाय उलझती ही जाती है । गाँवों क्या औसत दर्जे के ५०,००० तक की आबादी के शहर भी किसी न किसी तरह से सुविधाओं की कमी से जूझ रहे हैं। सरकार चाहे तो कुछ ठोस काम करके देश के कुछ सैकड़ा गाँवों को प्रति वर्ष सुविधायें प्रदान कर सकती है पर यहाँ पर यह भी ध्यान देना होगा की इनका हश्र उत्तर प्रदेश के अम्बेडकर गाँवों जैसा न हो जाए जो एक बार चयनित होने के बाद विकास की धुंध में ही घिरे हुए हैं ?
मंत्री जी से एक बात सादर पूछना चाहूँगा वे टी वी को मनोरंजन का दूसरा साधन बता रहे हैं पर लोगों ने अगर इस साधन पर "नीली" फिल्में देख कर आबादी बढ़ानी शुरू कर दी तब सरकार क्या टी वी वापस मंगवा लेगी ? बेहतर हो कि छोटे परिवार की खुशियों के बारे में लोगों को जागरूक किया जाए और इस तरह की कोरी लफ्फाजी से बचा जाए। आज़ाद एक सुलझे हुए नेता हैं पता नहीं उन्होंने इस तरह की बात सार्वजानिक तौर पर कैसे कह भी दी ?
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