लोकसभा की स्पीकर मीरा कुमार ने जिस तरह से यह कहा कि १०० दिन संसद में काम काज ज़रूर होना चाहिए वह बिल्कुल सही है। आज से २५ साल पहले तक संसद की बैठकें नियमित रूप से होती रहती थीं पर धीरे-धीरे यह कम ही होती चली गयीं। देश कितना बड़ा खर्चा करने के बाद इन सांसदों को चुन कर देश चलाने के लिए भेजता है। आज संसद में होने वाली बहस में केवल औपचारिकता ही लगती है हाँ संसद में बहुत सी सुविधाएँ बढ़ गई हैं पर जो कुछ वहां पर होना चाहिए वही नहीं हो पाता है। संसदीय परम्परा का मन्दिर जिसमें संसद ही सर्वोच्च है पर कहीं से ऐसा आज नहीं दीखता कि सांसद अपने कार्य का निर्वहन पहले की भांति कर पा रहे हों। इतनी सारी संसदीय समितियां इतनी सारी समस्याएं पर सारी जस की तस ? किसी भी मुद्दे पर फ़ैसला बहुत ही देर में और समय निकल जाने पर आने के कारण बहुत बार उनका महत्त्व ही समाप्त हो जाया करता है। संसद की सर्वोच्चता को सभी मानते हैं पर वहां पर बैठने वाले माननीय सांसद ही किस तरह से व्यवहार करके अपने मान सम्मान को ठेस पहुंचाते रहते हैं ? अच्छा हो कि कुछ इस तरह से किया जा सके कि न्यूनतम दिन निर्धारित कर दिए जायें कि यदि सांसद इतने दिनों तक बैठकों में भाग न लें तो उनकी कुछ सुविधाएँ वापस ले ली जाए। आख़िर जब काम न करने वाले अधिकारियों को प्रतिकूल प्रवृष्टि दी जा सकती है तो इन सांसदों के साथ भी कुछ ऐसा दबाव में क्यों नहीं कराया जाना चाहिए ? आज का समय ऐसा है कि कोई भी अपना काम नहीं करना चाहता पर जब कुछ दबाव बना दिया जाता है तो वही व्यक्ति अपने सारे काम करने लगता है। हो सकता है कि इस सब में कुछ अधिक पैसा खर्च हो जाए पर वह उस नुकसान से बहुत कम होगा जो सांसद अच्छी तरह से बहस करके सरकार को घेरकर देश हित में फैसले कराकर बचा लेंगें।
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
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