हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी उत्तरांचल के चार धामों की यात्रा करने वाले रास्ते में पड़ने वाले ग्लेशिएट का मज़ा इस बार नहीं उठा सकेंगें क्योंकि सीमा सड़क संगठन की तैयारियों में यह सामने आया है कि इस बार ६ स्थानों में केवल रगड़ धार में ही यह बन सका है और जब तक यह यात्रा प्रारंभ होगी तब तक इसके भी पिघल जाने की आशंका है. ग्लेशिएट वास्तव में पहाड़ों पर होने वाली बर्फ़बारी के नीचे घाटियों तक खिसकने से बनते हैं और यह भी ग्लेशियरों की तरह कठोर होते हैं. आम तौर पर सभी लोग इन्हें भी ग्लेशियर समझ लेते हैं इनकी बर्फ़ भी कठोर होती है. इस बार पहाड़ों पर बर्फ़ बारी तो ठीक ही हुई पर उस हिसाब से पांडुकेश्वर से बद्री नाथ तक जाने वाले मार्ग पर हिम स्खलन बहुत कम हुआ है जिसके कारण ही ग्लेशिएट कम संख्या में बने हैं. इस इलाके के आस-पास रहने वालों के लिए यह बहुत आश्चर्य की बात है क्योंकि उन्होंने जब से होश संभाला है इसको हर वर्ष देखा है पर इस बार इनके गायब होने से उनके साथ वैज्ञानिक भी चिंतित नज़र आ रहे हैं क्योंकि इसका सम्बन्ध कहीं न कहीं जलवायु परिवर्तन से भी हो सकता है.
आज जिस तरह से सुदूर क्षेत्र में भी मानवीय गतिविधियां निरंतर बढ़ती जा रही हैं उनका असर कहीं न कहीं इस रूप में तो दिखाई ही देना है. अब भी समय है कि इन दूरस्थ स्थानों में उतनी ही गतिविधियां की जाएँ उतने ही निर्माण कराये जाएँ जिनकी आवश्यकता है अनावश्यक रूप से इस तरह के स्थानों के प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र से छेड़ छाड़ नहीं करनी चाहिए. ऐसा नहीं है कि केवल इन्हीं स्थानों पर ही होने वाली हलचलों से ऐसा हो रहा है पूरे विश्व में हम मानव प्रकृति के साथ दुराचार कर रहे हैं और फिर यह कहने में बिलकुल भी नहीं चूकते हैं कि इस साल तो अप्रैल के महीने में ही बहुत गर्मी पड़ने लगी है ? कौन इस बढ़ती हुई सर्दी गर्मी का ज़िम्मेदार है ? विकास के नाम पर विनाश की एक नयी गाथा हम स्वयं ही लिख रहे हैं. देश में आने जाने के लिए राजमार्गों का निर्माण जारी है और इनको चौड़ा करने में लाखों पेड़ों की बलि दे दी गयी है पर उनके स्थान पर अभी तक शायद ५ % पेड़ ही लगाये जा सके हैं. जब तक नीतियों में सख्ती नहीं की जाएगी इस तरह कि विषम परिस्थितियां आती ही रहेंगीं .
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
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