मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

प्रतिभा का सम्मान क्यों नहीं ?

चिली की एक खदान में फंसे मजदूरों को सुरक्षित बाहर निकलने की जिस विधि को अमेरिका के लोग अपना बता रहे हैं दरअसल वह बहुत पहले ही एक भारतीय अभियंता द्वारा सफलतापूर्वक अपनाई जा चुकी है और उसके लिए उन्हें १९९१ में राष्ट्रपति की तरफ से जीवन रक्षा पदक भी दिया गया था. भारतीय कोल माइंस विशेषज्ञ जसवंत सिंह गिल ने इस तरह का प्रयोग १९८९ में ही करके ७० दिनों में लगभग ६५ लोगों को बचाया था और यह घटना पश्चिम बंगाल के रानी गंज जिले की महावीर खदान में हुई थी.  
     अफ़सोस की बात यह है की जिस तकनीक को आज अमेरिका के वैज्ञानिक अपनी बता रहे हैं वह असल में भारत में ही सबसे पहले अपनाई गयी थी पर क्या उस बारे में उस समय दुनिया के लोग यह जान पाए थे कि यहाँ पर किसी बड़े अभियान में इस तरह से लोगों को जिंदा बचाने में सफलता हाथ लगी है ? तब संचार की क्रांति इतनी आगे नहीं थी और लोग इस तरह के मामलों में अपना काम करके शांति का अनुभव प्राप्त करके ही खुश हो लिया करते थे. गिल ने इस बात के लिए मीडिया और अन्य लोगों के साथ अमेरिका को भी सूचित कर दिया है कि जिस पर वह अपना अधिकार बता रहा है वह वास्तव में बहुत समय पहले ही उनके द्वारा भारत में किया जा चुका है.
      बात यहाँ पर बात किसी का श्रेय लेने की नहीं है बात तकनीक को दुनिया भर तक पहुँचाने की भी है. दुनिया भर में पता नहीं कितने ही श्रमिक इस तरह की दुर्घनाओं में मारे जाते हैं जबकि इस बारे में कोई सामूहिक प्रयास करके इस तकनीक को और उन्नत किया जा सकता है जिससे इस तरह के किसी भी हादसे के समय इन लोगों को बचाया जा सके. पर आज जब इस भौतिकता वादी दुनिया में कोई भी अपने से आगे नहीं सोचना चाहता है तो इन गरीब मजदूरों की किसी फिक्र होगी ? अब समय है कि पेटेंट के इस युग में भारत के दूर दराज़ के क्षेत्रों में होने वाली इस तरह की सभी प्रक्रियाओं को सूची बद्ध किया जाये और आवश्यकता पड़ने पर पटेंट भी कराया जाये. कहीं ऐसा न हो कि हमारे इस तरह के ज्ञान को विकसित देश अपने अनुसार बदल कर वह माडल हमें ही पैसे देकर बेचना शुरू कर दें ? अब भी समय है हमें चूकना नहीं चाहिए वरना बहुत देर हो जाएगी..    

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