मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शनिवार, 20 अगस्त 2011

गतिरोध कब तक ?

अन्ना के रामलीला मैदान में पहुँचने के साथ ही एक बार फिर से वही मुद्दे देश के सामने हैं कि वह लोकपाल विधेयक पर अब किस राह चले ? यह सही है कि देश की आम जनता भ्रष्टाचार से बुरी तरह त्रस्त है और ऐसे में उसे लगता है कि अन्ना का आन्दोलन उसे इससे मुक्ति दिला सकता है. अब समय आ गया है कि देश के सभी राजनैतिक दल इस बात का खुले तौर पर समर्थन या विरोध करें कि वे लोकपाल में उतनी ही सख्ती चाहते हैं जितनी अन्ना चाहते हैं ? जन लोकपाल विधेयक अब सबके सामने है और सरकार ने जो विधेयक पेश किया है वह भी संसद के सामने है. दोनों पक्षों को एक दूसरे के विधेयक में खामियां नज़र आ रही हैं तो अब क्या रास्ता बचता है ? अब सही समय आ गया है कि इस मसले पर जारी गतिरोध को तोड़ा जाये जिससे जनता में हताशा न फ़ैले और देश को एक मज़बूत लोकपाल भी मिल सके.  सरकारी तंत्र पर भरोसा न होने के कारण अब मध्यस्थता के लिए कुछ विश्वसनीय तटस्थ लोगों की आवश्यकता है जो जनता को स्वीकार्य हों क्योंकि अब यह आन्दोलन अन्ना के हाथ से निकल कर जनता के हाथ में आ चुका है.
        पहला काम जो राजनैतिक स्तर पर अविलम्ब किया किया जाना चाहिए वह यह है कि सभी दल एक साथ बैठे और इस बात पर विचार करें कि जो मांगें अन्ना ने रखी हैं उनमें से कितनी मांगों को माना जा सकता है और किस मांग को बिलकुल भी नहीं माना जा सकता है जिससे मतभेद के कुछ मुद्दे तो सामने से हटें और एक समय बद्ध तरीके से इस गतिरोध कि हटाया जाये जिसमें आपसी विस्वास और सहयोग की भावना हो तभी देश का भला हो सकेगा. जिन मुद्दों पर राजनैतिक दलों को लगता है कि वे देश के लिए लम्बे समय में नुक्सान दायक हो सकते हैं तो वे अपनी चिंताएं देश के सामने लायें फिर अन्ना की टीम को समय दिया जाये कि वे इस पर उनकी शंकाओं का निराकरण करें.  बातचीत को अगर शुरू किया जाये तो यह बिना छुट्टी के रोज़ ही होनी चाहिए और इसके लिए एक तय प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए. यह सारी प्रक्रिया राजनैतिक स्तर पर की जा सकती है और संसद में विचार करने के लिए किसी सदस्य द्वारा अन्ना के विधेयक को भी पटल पर गैर सरकारी विधेयक के तौर पर रखा जा सकता है फिर उस पर गंभीर बहस के माध्यम से उसकी अच्छाइयों और कमियों के बारे में बहस करायी जा सकती है.  जिस तरह से अन्ना को सरकारी लोकपाल विधेयक पर शंकाएं हैं ठीक उसी तरह राजनैतिक दल भी अन्ना के कुछ प्रावधानों पर शंकालु हैं. पिछली बार के अन्ना के अनशन से एक बात तो साफ़ हो ही गयी कि ४२ सालों से लटका विधेयक केवल कुछ कड़े प्रावधानों के साथ सदन में रखा तो गया. 
      यह सही है कि देश में विधायिका के काम करने की एक तय प्रक्रिया है और उसके बिना कोई भी सरकार कुछ नहीं कर सकती है पर किसी भी सरकार को यह हक़ भी नहीं है कि वह नियमों के पीछे छिपकर बच भी नहीं सकती है अब समय है कि कांग्रेस अन्ना की इस मांग पर देश को कहाँ तक और क्या दे सकती है यह पार्टी के स्तर पर बताये और संप्रग सरकार के पास देने के लिए क्या है यह वह बताये क्योंकि पार्टी की राय गठबंधन सरकार की राय से भिन्न भी हो सकती है ? यह ज़िम्मेदारी आज कांग्रेस पर इसलिए भी ज़्यादा है क्योंकि वह देश की सत्ता को संभाले हुए है और यह पहल उसकी तरफ से होनी चाहिए फिर बाकी के दलों पर इस मसले पर अपनी राय स्पष्ट करने के लिए खुद ही दबाव बन जायेगा. पर हमारे देश में इस तरह की कोई परम्पराएँ रही ही नहीं है जिनसे कुछ नया किया जा सके फिर भी अपने देश में कोई नयी परंपरा भी तो बनायीं जा सकती हैं ? अब आज देश की जनता और देश के राजनैतिक तंत्र में जारी गतिरोध को तोड़ने का समय आ गया है क्योंकि अब अगर इस तरह से नहीं सोचा गया तो केवल और केवल देश का नुकसान होगा जो कि दुनिया में तेज़ी से बढ़ते हुए भारत के लिए कहीं से भी अच्छा और सुखद नहीं होगा.

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