मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

अन्ना और नेता


अन्ना के आन्दोलन में कुछ लोग किस तरह से अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने से भी बाज़ नहीं आ रहे हैं इसका ताज़ा उदाहरण सरकार की रणनीति से अधिक सोनिया राहुल पर लगने वाले आरोपों से लगाया जा सकता है.  जैसा कि सभी जानते  हैं कि सोनिया इस समय देश में नहीं हैं और संभवतः राहुल भी उनके आपरेशन के बाद से ही उनके साथ ही हैं. इस बीच अन्ना के इस आन्दोलन के ज़ोर पकड़ने से विपक्षी दलों को यह लगने लगा कि केवल मनमोहन सिंह पर आरोप लगाकर वे अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सकते हैं इसलिए वे उनके साथ सोनिया राहुल को खींचने से बाज़ नहीं आ रहे हैं. आज जब अन्ना देश के लिए इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर आन्दोलनरत हैं और देश भी उनके साथ खड़ा दिखाई दे रहा है तो कुछ लोगों को केवल अपने राजनैतिक हित ही दिखाई दे रहे हैं ? यह सही है कि कांग्रेस सोनिया की छाया से नहीं निकल सकती है क्योंकि उन्होंने उसे दोबारा से जिंदा किया है ठीक उसी तरह से जैसे भाजपा आज भी वोट मांगने के लिए अटल बिहारी की फोटो का इस्तेमाल करती है ? कांग्रेस का सोनिया प्रेम तो समझ में आता है पर विपक्षी दलों का खाना भी सोनिया पर व्यक्तिगत आरोप लगाये बिना नहीं पचता है जो कि इस बार वे नहीं कर पा रहे हैं. सोनिया की छवि को अनजाने में यही दल सबके सामने लाते रहते हैं जबकि आम जनता को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि सोनिया यहाँ हैं या नहीं. 

अन्ना के पिछले आन्दोलन और स्वामी रामदेव के अनशन के समय लोगों ने हर बात के लिए सोनिया को ज़िम्मेदार बताया और यह भी कहा कि जो कुछ भी हो रहा है सब उनके इशारे पर ही हो रहा है कुछ तथाकथित राष्ट्रभक्तों की नज़रों में वे आज भी विदेशी हैं और उनके पास जो संपत्ति है सब बाहर के बैंकों में जमा है और वे नहीं चाहती हैं कि यह राज खुले ? तब सभी को मनमोहन सिंह कठपुतली नज़र आते थे जो सोनिया के कहने पर ही देश चला रहे थे पर आज जब पूरे परिदृश्य से सोनिया और राहुल गायब हैं तो विपक्षी दलों को यह बेचैनी हो रही है कि मनमोहन सिंह पर भ्रष्ट होने के कोई आरोप लगाये नहीं जा सकते हैं तो आख़िर राहुल सोनिया कि ग़ैर मौजूदगी में वे किस पर आरोप लगायें ? क्या देश कि राजनैतिक हैसियत अब केवल सोनिया और राहुल तक ही सिमट कर रह गयी है ? जिस तरह से संसद में लोकपाल बिल पर बहस हुई उससे यह स्पष्ट है कि अन्ना का बिल किसी भी राजनैतिक दल को स्वीकार्य नहीं है यहाँ पर एक बात और स्पष्ट करने की आवश्यकता है कि लोकपाल बिल और अन्ना कि गिरफ़्तारी के मुद्दे को अलग अलग करके देखने की आवश्यकता है जबकि लोग गिरफ़्तारी के मुद्दे पर हुई बहस को लोकपाल बिल से जोड़कर देख रहे हैं ? हमारे नेताओं को अब यह भी समझ नहीं आता कि क्या मुद्दा है और किस पर बहस होनी चाहिए ? जिस लोकपाल पर बहस होनी चाहिए वह नहीं होती पर गिरफ़्तारी पर ज्यादा हल्ला मचाया जाता है.

आज कोई भी राजनैतिक दल अन्ना के लोकपाल पर बोलने को खुले तौर पर तैयार नहीं हैं क्योंकि उन्हें पता है कि कल को इतनी सख्ती के साथ उनके भ्रष्ट आचरण मेल नहीं खायेगें ? आज तक किसी भी राजनैतिक दल ने कुछ भी ऐसा नहीं कहा है कि वह अन्ना के बिल का अक्षरशः समर्थन करता है ? आख़िर क्यों सभी राजनैतिक दल अन्ना के प्रस्तावों से डर रहे हैं क्यों नहीं वे अपने को इस मुद्दे पर कांग्रेस से अलग खड़ा करने की कोशिश भी नहीं करना चाहते हैं  ? फिर लोकपाल बिल को रोकने के सारे आरोप केवल कांग्रेस पर ही क्यों ?  कर्नाटक में लोकायुक्त कि रिपोर्ट का जिस तरह से मज़ाक बनाया गया और यूपी में लोकायुक्त की शिकायतों और प्रस्तावों पर अमल किया जाये तो आधे नेता मुक़दमे में फंसे नज़र आयेंगें. यह स्थिति केवल दो राज्यों की है पर बाक़ी के राज्य भी इससे बहुत अलग नहीं हैं. इस जन दबाव का उपयोग आज किसी दल के ख़िलाफ़ करने की आवश्यकता नहीं है बल्कि देश को संसद को यह सोचने पर मजबूर करने की ज़रुरत है कि आख़िर क्यों इस तरह के कड़े कानून नहीं बनाये जाते हैं ?  फिलहाल अन्ना अपने एजेंडे पर लगे हुए हैं कि देश का कुछ भला हो जाये और हमारे नेतागण अपनी ढपली बजाने में लगे हुए हैं.     
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