जिस तरह से विकिलीक्स ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री से सम्बंधित दस्तावेज़ नेट पर जारी किये हैं उससे यही लगता है कि गोपनीयता के बड़े बड़े दावे करने वाले अमेरिका के भी कोई दस्तावेज़ सुरक्षित नहीं हैं. यह सही है कि जिस तरह से इस साईट में दुनिया भर से जुड़े बड़े बड़े मामलों में राजनयिक बातचीत के ब्यौरे सार्वजनिक किये हैं उससे भी पूरी दुनिया के राजनैतिक और राजनयिक तंत्र में बेचैनी व्याप्त है. जैसा कि हमेशा ही होता आया है कि अपने ख़िलाफ़ कुछ भी आने पर कोई भी नेता उसे आसानी से मानने को तैयार नहीं होता है और उसे कोरी बकवास साबित करने में जुट जाता है ? इस तरह के कई मामलों में दुनिया क्या भारत की हर पार्टी के ख़िलाफ़ कुछ न कुछ कहा ही जा चुका है तो अब यह नेताओं पर है कि वे इन मामलों में से कुछ अपने लिए निकालें या फिर इसे मात्र एक सूचना के तौर पर लें ? इन टिप्पणियों पर जिस तरह से मायावती ने अपनी प्रतिक्रिया दिखाई है और उसके बाद असांज ने भी फिर से कुछ बोला है उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी. इस तरह से इन मामलों को अनावश्यक तूल देकर नेता इनकी अहमियत को बढ़ाने का काम ही किया करते हैं. जब कोई काम किये जाते हैं तो उनमें ग़लतियों की भी संभावनाएं होती हैं फिर उनको स्वीकार करने के स्थान पर लीपा पोती करने के पीछे क्या कारण है यह तो नेता ही बता सकते हैं. प्रदेश के लिए यह कोई नया खुलासा नहीं है क्योंकि यहाँ पर विपक्षी दल हमेशा से ही माया पर इस तरह के आरोप लगते रहते हैं.
आज नैतिकता के नाम पर हल्ला मचाने वाले नेतागण यह भूल जाते हैं कि वास्तव में उनमें कितनी नैतिकता बची है यहाँ पर बात किसी एक दल की नहीं वरन पूरे राजनैतिक तंत्र की है क्योंकि जिस तरह से देश में इन्होने अपनी विश्वसनीयता को खोया है उसके बाद क्या जनता के लिए कुछ और सोचने और समझने का अवसर बचा भी है ? जब तक नेताओं में नैतिक साहस नहीं आएगा तब तक जनता इस तरह की हर बात पर भरोसा करती रहेगी. हो सकता है कि इस तरह के खुलासे किसी राजनैतिक लाभ हानि के लिए भी किये जा रहे हों पर भारत के किसी भी मामले में या फिर नेताओं से जुड़े किसी भी मामले में जनता ही सर्वोच्च है और जनता क्या सोचती है यह चुनाव में सामने आ ही जाता है. उत्तर प्रदेश में जिस तरह से मायावती से पिछले चुनाव में बड़ी आशा के साथ जुड़े मतदाताओं का मोहभंग हुआ है वह उनको किसी भी खुलासे से वापस मिलने वाला नहीं है क्योंकि जिस वर्ग ने प्रदेश में व्याप्त अराजकता के चलते उन्हें एक मत से बहुमत तक पहुँचाया था वाही वर्ग आज हताश है. केवल दलितों की बातें करके बसपा दलित वोटों को तो बचाए रख सकती है पर इसके कारण अन्य वर्गों के इस बार उससे दूर करने वाले कारण कहीं से भी नहीं हट सकते हैं. आज बसपा के सामने सर्व स्वीकार्य होने पर ही प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है और यही प्रश्न चिन्ह उसके लिए बड़ी राजनैतिक चोट साबित हो सकता है.
यह सही है कि बसपा की ताकत उसका दलित वोट है पर केवल दलित वोटों के सहारे बसपा के लिए ७० विधायकों के आंकड़े से आगे बढ़ने का कोई मार्ग है ही नहीं तो इस बार के चुनावों में उसके लिए इस तरह के खुलासे बहुत घातक होने वाले हैं. किन्ही स्थानीय कारणों को छोड़कर दलित आज भी बसपा के साथ हैं जो कि उसकी सबसे बड़ी ताकत हैं. प्रदेश में बसपा के बढ़ने के बाद से जिस तरह से दलित वोट उसके साथ हमेशा ही रहता आया है वह इस बार भी रहने वाला है अगर कोई बहुत बड़ी बात नहीं हो जाती है पर पिछले चुनावों में समर्थन करने वाले अन्य वर्गों का समर्थन इस बार बसपा को नहीं मिलने वाला है. साथ ही पिछली बार जिस नीति के तहत बसपा ने मैदान मारा था इस बार तेज़ी से उभरती पीस पार्टी ने भी ठीक वही नीति अपनाई हुई है और पूरे प्रदेश में इस नयी पार्टी ने अपनी बातों से मुस्लिम वर्ग को अपने साथ जोड़ने में बहुत बड़ी सफलता पाई है. पिछले कुछ उपचुनावों में इसने जिस तरह से प्रदर्शन किया है वह बसपा के लिए ही सबसे बड़ा खतरा बनने वाली है. जहाँ तक कुछ लोगों का यह मानना है कि बसपा को दोबारा मौका मिल सकता है तो यह दूर की कौड़ी है क्योंकि ख़राब प्रशासन के कारण आम लोगों को जिन कठिनाइयों से गुज़ारना पड़ा है वे उसका बदला लेने के लिए तैयार ही बैठे हैं. अगर बसपा सरकार ने सुशासन दिया होता तो दिल्ली, बिहार, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की तरह उसकी सरकार बनने में कोई दिक्कत नहीं होती.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
आज नैतिकता के नाम पर हल्ला मचाने वाले नेतागण यह भूल जाते हैं कि वास्तव में उनमें कितनी नैतिकता बची है यहाँ पर बात किसी एक दल की नहीं वरन पूरे राजनैतिक तंत्र की है क्योंकि जिस तरह से देश में इन्होने अपनी विश्वसनीयता को खोया है उसके बाद क्या जनता के लिए कुछ और सोचने और समझने का अवसर बचा भी है ? जब तक नेताओं में नैतिक साहस नहीं आएगा तब तक जनता इस तरह की हर बात पर भरोसा करती रहेगी. हो सकता है कि इस तरह के खुलासे किसी राजनैतिक लाभ हानि के लिए भी किये जा रहे हों पर भारत के किसी भी मामले में या फिर नेताओं से जुड़े किसी भी मामले में जनता ही सर्वोच्च है और जनता क्या सोचती है यह चुनाव में सामने आ ही जाता है. उत्तर प्रदेश में जिस तरह से मायावती से पिछले चुनाव में बड़ी आशा के साथ जुड़े मतदाताओं का मोहभंग हुआ है वह उनको किसी भी खुलासे से वापस मिलने वाला नहीं है क्योंकि जिस वर्ग ने प्रदेश में व्याप्त अराजकता के चलते उन्हें एक मत से बहुमत तक पहुँचाया था वाही वर्ग आज हताश है. केवल दलितों की बातें करके बसपा दलित वोटों को तो बचाए रख सकती है पर इसके कारण अन्य वर्गों के इस बार उससे दूर करने वाले कारण कहीं से भी नहीं हट सकते हैं. आज बसपा के सामने सर्व स्वीकार्य होने पर ही प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है और यही प्रश्न चिन्ह उसके लिए बड़ी राजनैतिक चोट साबित हो सकता है.
यह सही है कि बसपा की ताकत उसका दलित वोट है पर केवल दलित वोटों के सहारे बसपा के लिए ७० विधायकों के आंकड़े से आगे बढ़ने का कोई मार्ग है ही नहीं तो इस बार के चुनावों में उसके लिए इस तरह के खुलासे बहुत घातक होने वाले हैं. किन्ही स्थानीय कारणों को छोड़कर दलित आज भी बसपा के साथ हैं जो कि उसकी सबसे बड़ी ताकत हैं. प्रदेश में बसपा के बढ़ने के बाद से जिस तरह से दलित वोट उसके साथ हमेशा ही रहता आया है वह इस बार भी रहने वाला है अगर कोई बहुत बड़ी बात नहीं हो जाती है पर पिछले चुनावों में समर्थन करने वाले अन्य वर्गों का समर्थन इस बार बसपा को नहीं मिलने वाला है. साथ ही पिछली बार जिस नीति के तहत बसपा ने मैदान मारा था इस बार तेज़ी से उभरती पीस पार्टी ने भी ठीक वही नीति अपनाई हुई है और पूरे प्रदेश में इस नयी पार्टी ने अपनी बातों से मुस्लिम वर्ग को अपने साथ जोड़ने में बहुत बड़ी सफलता पाई है. पिछले कुछ उपचुनावों में इसने जिस तरह से प्रदर्शन किया है वह बसपा के लिए ही सबसे बड़ा खतरा बनने वाली है. जहाँ तक कुछ लोगों का यह मानना है कि बसपा को दोबारा मौका मिल सकता है तो यह दूर की कौड़ी है क्योंकि ख़राब प्रशासन के कारण आम लोगों को जिन कठिनाइयों से गुज़ारना पड़ा है वे उसका बदला लेने के लिए तैयार ही बैठे हैं. अगर बसपा सरकार ने सुशासन दिया होता तो दिल्ली, बिहार, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की तरह उसकी सरकार बनने में कोई दिक्कत नहीं होती.
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