प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश पर जिस तरह से संसद में गतिरोध बना हुआ है उसके बाद यही लगता है कि अब संसदीय सरोकारों से किसी को कोई मतलब नहीं रह गया है. सरकार ने जिस तरह से संकेत दिए हैं कि वह स्थगन प्रस्ताव पर राज़ी हो सकती है उसके बाद यह उम्मीद बनी है कि अब इस समस्या से बाहर निकलने का कोई रास्ता मिल सकता है. देश में केवल किसी भी बात पर बिना बात के संसद को सड़क जैसे माहौल में बदल देने की एक परंपरा सी बनती जा रही है जो देश के दीर्घकालिक संसदीय हितों के लिए ठीक नहीं है क्योंकि आज की युवा पीढ़ी या बच्चे यही सब देखकर बड़े होने वाले हैं और इनमें से जब कुछ आगे चलकर राजनैतिक क्षेत्र में आयेंगें तो उनके पास इस तरह की गतिविधियों को करने के लिए मज़बूत बहाना होगा कि ये तो संसद में हमेशा से ही होता आया है और अब उनसे किसी भी तरह से अलग व्यवहार की आशा कैसे की जा सकती है ? जिस तरह से सरकार ने स्थगन प्रस्ताव पर विचार करने की बात मान ली है और यह भी कहा है कि वह बिल वापस नहीं लेगी भले ही स्थगन प्रस्ताव की चर्चा में यह बिल गिर जाये उससे यही लगता है कि सरकार ने इस बिल को बहुत मेहनत से बनाया है.
आज जिस तरह से किसी भी बात पर बिना बहस केवल हल्ला मचने की संस्कृति संसद में आती जा रही है उससे देश गंभीर मसलों पर विचार करने से चूक जाया करता है. संसदीय परंपरा में ऐसी किसी भी बात का कोई स्थान नहीं होता है जो जोर ज़बरदस्ती से की जाये. उत्तर प्रदेश विधान सभा में प्रदेश के बंटवारे का प्रस्ताव जिस तरह से पास किया गया उससे क्या पता चलता है कि सत्ताधारी दल केवल बहुतमत के बल पर कुछ भी करना चाहता है उसे जनता और विपक्ष की कोई परवाह नहीं है. ठीक इसी तरह से संसद को भी विपक्ष बहस करने के स्थान पर अराजकता के साथ बहुत कुछ करवाना चाहता है ? संसद या विधान सभा को चलाने की ज़िम्मेदारी सत्ता और विपक्ष कि होती है पर आज जिस तरह से इन संसदीय स्थानों को अखाड़ों में बदलने की प्रक्रिया शुरू हो गयी है वह देश के लिए घातक है. कोई भी प्रस्ताव देश के लिए अच्छा या बुरा हो सकता है अपर जब उस पर किसी भी तरह की चर्चा ही नहीं की जाएगी तो सभी लोगों की राय कैसी पता चलेगी और एक अच्छा विधेयक बनने से पहले ही ख़त्म हो जायेगा.
विरोध की भी एक सीमा होनी चाहिए क्योंकि १९९१ में जिन आर्थिक सुधारों का भाजपा और अन्य दलों ने खुलकर विरोध किया था और यह भी कहा था कि इसने देश गिरवी हो जायेगा पर जब उन आर्थिक सुधारों से लाभ उठाने की बात सामने आई तो सबसे पहले भाजपा ने ही विनिवेश की प्रक्रिया को तेज़ी से आगे बढाया ? क्यों ? क्योंकि भाजपा के आर्थिक चिंतकों को भी यह पता है कि मनमोहन सिंह के लागू किये आर्थिक सुधार अगले ५० वर्षों में भी भारत का अहित नहीं कर सकते हैं तो फिर उनको चुपचाप अपना लेने में क्या बुराई है ? अब ख़ुदरा में विदेशी निवेश पर खुली बहस भी होनी चाहिए क्योंकि यह केवल किसी एक पार्टी से जुड़ा मसला नहीं है. नेतओं के संसद में काम करने की प्रक्रिया पर भी पुनर्विचार की आवश्यकता है कि कितने घंटे तक संसदीय काम चलने पर ही वे दैनिक वेतन भत्ते और दिल्ली में मिलने वाली सुविधाओं के हक़दार होंगें ? पूरे ५ वर्षों में न्यूनतम घंटे भी तय होने चाहिए जिसमें असफल रहने पर इनकी पेंशन आदि भी बंद कर देनी चाहिए. आख़िर इनको देश के विकास के लिए संसद भेजा जाता है पर जब ये अपना काम ही नहीं करते हैं तो इनको वैसी सुविधाएँ क्यों दी जानी चाहिए ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
आज जिस तरह से किसी भी बात पर बिना बहस केवल हल्ला मचने की संस्कृति संसद में आती जा रही है उससे देश गंभीर मसलों पर विचार करने से चूक जाया करता है. संसदीय परंपरा में ऐसी किसी भी बात का कोई स्थान नहीं होता है जो जोर ज़बरदस्ती से की जाये. उत्तर प्रदेश विधान सभा में प्रदेश के बंटवारे का प्रस्ताव जिस तरह से पास किया गया उससे क्या पता चलता है कि सत्ताधारी दल केवल बहुतमत के बल पर कुछ भी करना चाहता है उसे जनता और विपक्ष की कोई परवाह नहीं है. ठीक इसी तरह से संसद को भी विपक्ष बहस करने के स्थान पर अराजकता के साथ बहुत कुछ करवाना चाहता है ? संसद या विधान सभा को चलाने की ज़िम्मेदारी सत्ता और विपक्ष कि होती है पर आज जिस तरह से इन संसदीय स्थानों को अखाड़ों में बदलने की प्रक्रिया शुरू हो गयी है वह देश के लिए घातक है. कोई भी प्रस्ताव देश के लिए अच्छा या बुरा हो सकता है अपर जब उस पर किसी भी तरह की चर्चा ही नहीं की जाएगी तो सभी लोगों की राय कैसी पता चलेगी और एक अच्छा विधेयक बनने से पहले ही ख़त्म हो जायेगा.
विरोध की भी एक सीमा होनी चाहिए क्योंकि १९९१ में जिन आर्थिक सुधारों का भाजपा और अन्य दलों ने खुलकर विरोध किया था और यह भी कहा था कि इसने देश गिरवी हो जायेगा पर जब उन आर्थिक सुधारों से लाभ उठाने की बात सामने आई तो सबसे पहले भाजपा ने ही विनिवेश की प्रक्रिया को तेज़ी से आगे बढाया ? क्यों ? क्योंकि भाजपा के आर्थिक चिंतकों को भी यह पता है कि मनमोहन सिंह के लागू किये आर्थिक सुधार अगले ५० वर्षों में भी भारत का अहित नहीं कर सकते हैं तो फिर उनको चुपचाप अपना लेने में क्या बुराई है ? अब ख़ुदरा में विदेशी निवेश पर खुली बहस भी होनी चाहिए क्योंकि यह केवल किसी एक पार्टी से जुड़ा मसला नहीं है. नेतओं के संसद में काम करने की प्रक्रिया पर भी पुनर्विचार की आवश्यकता है कि कितने घंटे तक संसदीय काम चलने पर ही वे दैनिक वेतन भत्ते और दिल्ली में मिलने वाली सुविधाओं के हक़दार होंगें ? पूरे ५ वर्षों में न्यूनतम घंटे भी तय होने चाहिए जिसमें असफल रहने पर इनकी पेंशन आदि भी बंद कर देनी चाहिए. आख़िर इनको देश के विकास के लिए संसद भेजा जाता है पर जब ये अपना काम ही नहीं करते हैं तो इनको वैसी सुविधाएँ क्यों दी जानी चाहिए ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
विरोधी और समर्थक दोनों ही स्वस्थ बहस करें, देश का भविष्य दाँव पर है।
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