भुवनेश्वर आईआईटी में ९९ वीं इंडियन साइंस कांग्रेस में बोलते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देश में जिस तरह से विज्ञान के क्षेत्र में और अधिक निवेश किये जाने पर बल दिया उससे यही लगता है कि अगले वित्तीय वर्ष में शायद सकल घरेलू उत्पाद के ०.९९ % के आंकड़े से आगे बढ़कर सरकार कुछ अधिक करने का मन बना चुकी है. आज से १५ वर्ष पहले तक देश में कुल राजस्व इतना नहीं होता था कि कोई भी सरकार इस तरह के कामों के लिए बहुत अधिक धन जुटा सके फिर भी पिछले दशक में जिस तरह से नए मदों से राजस्व आना शुरू हुआ है उसके बाद अब सरकार कि ज़िम्मेदारी तो बनती ही है कि अब विज्ञान और अनुसन्धान के लिए और अधिक धन का आवंटन किया जाये क्योंकि अब देश की मेधा को अगर देश में ही अच्छे अनुसन्धान केंद्र देने हैं तो इस बारे में अब विचार करना ही होगा. मनमोहन सिंह ने जिस तरह से इस क्षेत्र में सकल घरेलू उत्पाद का २% खर्च करने की बात कही और साथ ही यह भी कहा कि अब उद्योग जगत को आगे आकर इस क्षेत्र के लिये कुछ करना ही होगा क्योंकि बिना इसके कुछ अधिक किये जाने की संभावाएं कम ही हैं.
सरकार के अपने खर्च करने के अलग तरीके होते हैं और पिछले कुछ दशकों से जिस तरह से अपने राजनैतिक हितों को साधने के लिए राजस्व को मनमाने तरीके से खर्च किया जाने लगा है उससे भी देश का बहुत नुकसान हो चुका है. अब इस मसले पर सोचने की आवश्यकता है क्योंकि आज चीन ने विज्ञान के क्षेत्र में हमें पीछे छोड़ दिया है ऐसे में अब हमें विज्ञान के लिए एक राष्ट्रीय नीति बनानी ही होगी और बिना किसी कोताही के अन्य मदों में कटौती करके इसे पूरा सहयोग देना ही होगा. जिस तरह से बात बात पर राजनैतिक दल केवल अपने हितों की बातें ही करते रहते हैं और केवल आवश्यकता पड़ने पर मजबूरी में ही देश के इस तरह के विकास की बातें सोचते हैं वह देश के लिए घातक है. अब संसद में या सर्वदलीय बैठक में देश के शीर्ष वैज्ञानिकों से विचार करके ५-५ वर्षों के लिए विज्ञान के लक्ष्य निर्धारित किये जाने चाहिए जिससे यह जाना जा सके कि देश इस चरण बद्ध तरीके से आख़िर कितना आगे जा सकता है और इसके लिए कितने धन की आवश्यकता होगी ? इस धन की उपलब्धता अब आगे आने वाली हर सरकार को करनी ही होगी.
देश में विज्ञान उन्नत हो इस बारे में किसी भी नेता या दल को कोई आपत्ति नहीं होगी पर जब इसके लिए नियमित रूप से धन उपलब्ध करने की बात सामने आएगी तो पता नहीं कितने दल या नेता इस बात का समर्थन कर पायेंगें ? देश को विज्ञान के बारे में एक स्पष्ट नीति की आवश्यकता है और देश की मेधा को संवारने की ज़रुरत भी है क्योंकि कई विशेषज्ञ अब इस बात को मानने लगे हैं के अब देश के शीर्ष पढ़ाई के केंद्र उतने अच्छे विद्यार्थी नहीं दे पा रहे हैं जैसे २ दशक पहले आया करते थे. आज कुछ तरीके अपना कर इन संस्थानों में प्रवेश तो पाया जा सकता है पर जिस वैज्ञानिक बुद्धि की आवश्यकता इस सबके लिए होती है वह पूरी तरह से नदारत है और इसका खामियाज़ा देश में चलने वाले अनुसन्धान को झेलना पड़ रहा है. देश में राजनीति को किनारे करके अब विज्ञान को पूरी तरह से सामने लाने की ज़रुरत है क्योंकि हमारे यहाँ की मेधा बहुत दिनों तक विदेशों में काम कर चुकी है और अगर हम अब भी इसके लिए अपने यहाँ पर अवसर उपलब्ध कराने में असफल रहते हैं तो आने वाले कई दशकों तक हमारी पूरी तैयारियां बहुत पीछे रह जाने वाली हैं और हम नयी तकनीक के लिए विदेशों पर निर्भर होने को मजबूर ही रहेंगें.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
सरकार के अपने खर्च करने के अलग तरीके होते हैं और पिछले कुछ दशकों से जिस तरह से अपने राजनैतिक हितों को साधने के लिए राजस्व को मनमाने तरीके से खर्च किया जाने लगा है उससे भी देश का बहुत नुकसान हो चुका है. अब इस मसले पर सोचने की आवश्यकता है क्योंकि आज चीन ने विज्ञान के क्षेत्र में हमें पीछे छोड़ दिया है ऐसे में अब हमें विज्ञान के लिए एक राष्ट्रीय नीति बनानी ही होगी और बिना किसी कोताही के अन्य मदों में कटौती करके इसे पूरा सहयोग देना ही होगा. जिस तरह से बात बात पर राजनैतिक दल केवल अपने हितों की बातें ही करते रहते हैं और केवल आवश्यकता पड़ने पर मजबूरी में ही देश के इस तरह के विकास की बातें सोचते हैं वह देश के लिए घातक है. अब संसद में या सर्वदलीय बैठक में देश के शीर्ष वैज्ञानिकों से विचार करके ५-५ वर्षों के लिए विज्ञान के लक्ष्य निर्धारित किये जाने चाहिए जिससे यह जाना जा सके कि देश इस चरण बद्ध तरीके से आख़िर कितना आगे जा सकता है और इसके लिए कितने धन की आवश्यकता होगी ? इस धन की उपलब्धता अब आगे आने वाली हर सरकार को करनी ही होगी.
देश में विज्ञान उन्नत हो इस बारे में किसी भी नेता या दल को कोई आपत्ति नहीं होगी पर जब इसके लिए नियमित रूप से धन उपलब्ध करने की बात सामने आएगी तो पता नहीं कितने दल या नेता इस बात का समर्थन कर पायेंगें ? देश को विज्ञान के बारे में एक स्पष्ट नीति की आवश्यकता है और देश की मेधा को संवारने की ज़रुरत भी है क्योंकि कई विशेषज्ञ अब इस बात को मानने लगे हैं के अब देश के शीर्ष पढ़ाई के केंद्र उतने अच्छे विद्यार्थी नहीं दे पा रहे हैं जैसे २ दशक पहले आया करते थे. आज कुछ तरीके अपना कर इन संस्थानों में प्रवेश तो पाया जा सकता है पर जिस वैज्ञानिक बुद्धि की आवश्यकता इस सबके लिए होती है वह पूरी तरह से नदारत है और इसका खामियाज़ा देश में चलने वाले अनुसन्धान को झेलना पड़ रहा है. देश में राजनीति को किनारे करके अब विज्ञान को पूरी तरह से सामने लाने की ज़रुरत है क्योंकि हमारे यहाँ की मेधा बहुत दिनों तक विदेशों में काम कर चुकी है और अगर हम अब भी इसके लिए अपने यहाँ पर अवसर उपलब्ध कराने में असफल रहते हैं तो आने वाले कई दशकों तक हमारी पूरी तैयारियां बहुत पीछे रह जाने वाली हैं और हम नयी तकनीक के लिए विदेशों पर निर्भर होने को मजबूर ही रहेंगें.
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