मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

कुडनकुलम संयंत्र और राजनीति

        प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तमिलनाडु के कुडनकुलम में रूस के सहयोग से लगने वाले परमाणु संयंत्र के विरोध के पीछे अमेरिकी मदद से चलने वाले कुछ एनजीओ के हाथ होने के बारे में कहकर अच्छा ही किया है क्योंकि अभी तक सभी जानते हैं कि इस संयंत्र का राजनैतिक और आर्थिक कारणों से विरोध किया जा रहा है. मनमोहन सिंह के इस तरह से कहने के बाद से स्वाभाविक तौर पर भाजपा ने इसके बारे में सरकार से और अधिक जांच कर सत्य को सामने लाने की मांग की है और यह भी कहा है कि इस मामले की पूरी तह तक जाना भी आवश्यक है. ज़ाहिर है जब ख़ुद मनमोहन सिंह इस तरह की बात कह रहे हैं तो उन्हें इस बात के सबूत भी मिले होंगें क्योंकि अमेरिका इस तरह की हरकतें करने में हमेशा से ही आगे रहा है. वह कहने के लिए तो सामजिक उत्थान के लिए काम करने वाले विभिन्न एनजीओ को पैसा देता है और फिर विकासशील देशों में अपने हितों को साधने के लिए इनके माध्यम से ही अपनी बात मनवाने की कोशिश करता है. रूस भारत का पुराना और विश्वसनीय साझेदार हमेशा से ही रहा है और उसकी अनदेखी आज तक न की गयी है और न ही आने वाले समय में की जा सकेगी पर शीत युद्ध की समाप्ति के बाद आज भी अमेरिका को रूस का भय बना रहता है जिसे वह अपने व्यापारिक हितों के चलते पीछे धकेलना चाहता है.
        पीएम के इस तरह के बयान के बाद अमेरिका को दिक्कत होने वाली है क्योंकि अभी तक ये बातें केवल छोटे स्तर पर ही कही जा रही थीं और देश के पीएम के बयान के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि जो आरोप अमेरिकी सहायता से चलने वाले एनजीओ पर लग रहे हैं वे सही हैं. पता नहीं क्यों अमेरिका भारत को भी अपने पिट्ठू के तौर पर देखना चाहता है जबकि स्वतंत्र गति से आगे बढ़ता भारत अमेरिका के लिए हमेशा ही अधिक लाभ देने वाला हो सकता है. दुनिया के हर देश की ज़रूरतें अलग अलग हैं पर अमेरिका को यह लगता है कि देश अपनी ज़रूरतों पर अमेरिका के हितों को प्राथमिकता दें तो कोई भी संप्रभु देश उसके लिए अपने पैर पर कुल्हाड़ी क्यों मारना चाहेगा ? अमेरिका का पाला अभी तक पाक और सऊदी अरब जैसे देशों से ही अधिक पड़ा है जो अपने हितों के लिए अमेरिका के साथ खड़े रहते हैं पर वह भारत को भी इसी पैमाने पर तौलने की असफल कोशिश हर बार करता रहता है जिसका कोई मतलब नहीं है. भारत के जल्दी में लिए गए कुछ निर्णय अमेरिका के लिए स्थिति को असहज करने वाले साबित हो रहे हैं. ईरान के मसले पर भारत ने अमेरिका के निर्णय के विरुद्ध जाकर अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तेल के आयात को जारी रखने का निर्णय लिया है जिससे भी अमेरिका को अपनी बात का खंडन होता लगा.
      अमेरिका को यह समझना होगा कि भारत में पूरी तरह से जीवंत और सक्रिय लोकतंत्र है यहाँ पर न तो राजशाही चल रही है और न ही सेना निर्णय लेती है जिससे यहाँ की किसी भी सरकार के लिए अमेरिका की नीतियों के हिसाब से चलने में हमेशा ही दिक्कत आती रहेगी ? देश का राजनैतिक तंत्र कितना भी नाकारा हो पर देश के लिए इस तरह की बातें सोचने में उसे हमेशा से ही महारत हासिल है. अमेरिका को भारत के ऊर्जा हितों की नहीं वरन अपने आर्थिक और सामरिक हितों की अधिक चिंता है जिस कारण से वह सभी को अपनी तरह से हांकना चाहता है ? भारत की ऊर्जा ज़रूरतों के बारे में दीर्घकालिक निर्णय करने के लिए भारत सरकार स्वतंत्र है और किसी भी संगठन या देश से भारत के हितों के ख़िलाफ़ लिए जाने वाले किसी भी निर्णय के विरुद्द नियम सम्मत कार्यवाही करने के लिए वह स्वतंत्र है. अमेरिका को अब यह समझना ही होगा कि चौधराहट ज़माने का ज़माना अब लड़ चुका है और अगर उसे आज भी लगता है कि वह दुनिया का दरोगा है तो उसे अब अपने इस सपने से बाहर निकल आना चाहिए क्योंकि जब भारत की जो भी आवश्यकताएं आयेंगीं उनके बारे में भारत सरकार निर्णय लेने और उचित कदम उठाने में हमेशा आगे रहेगी भले ही भारत के हित में उठाये वे कदम अमेरिका के ही ख़िलाफ़ क्यों न जाते हों ?        
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