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शनिवार, 6 सितंबर 2014

ऑस्ट्रेलिया, यूरेनियम और भारतीय ऊर्जा आवश्यकता

                                                                         भारतीय ऊर्जा परिप्रेक्ष्य में जिस तरह से ऑस्ट्रेलियाई पीएम टोनी एबोट और भारतीय समकक्ष मरेंद्र मोदी ने आने वाले समय में यूरेनियम की आपूर्ति से जुड़े हुए मुद्दे पर समझौता कर आगे बढ़ने का निणय लिया है उससे भविष्य में भारतीय ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ ही दोनों देशों के संबंधों में और भी अधिक मज़बूती आने की संभावनाएं दिखाई देने लगी हैं. १९९८ में किये गए परमाणु परीक्षणों के बाद जिस तरह से रूस को छोड़कर पूरे विश्व ने भारतीय परमाणु ऊर्जा में किसी भी तरह के सहयोग को करने पर रोक लगा दी थी उसके बाद से ही भारत की तरफ से इस वैश्विक प्रतिबन्ध को समाप्त करवाने की पूरी कोशिशें की जा रही थीं. २००८ में जिस तरह से अमेरिका के साथ किये गए १२३ समझौते पर वामपंथियों ने मनमोहन सरकार से अपना समर्थन वापस लिया था उसके बाद भी जिस दृढ़ता से मनमोहन सिंह ने इस समझौते को पूरा किया था आज उसकी परिणीति सामने दिखाई देने लगी है. देश के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि भी कही जा सकती है क्योंकि यह भविष्य की ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने में सहायक साबित होने वाली है.
                                                              २०१२ में इस मुद्दे पर ऑस्ट्रेलिया से जो बातचीत शुरू की गयी थी इस समझौते से वह सकारात्मक रूप से सफलता की तरफ बढ़ चुकी है और आने वाले दो वर्षों में इस समझौते से जुडी औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद भारत को यूरेनियम की आपूर्ति शुरू हो सकेगी जिससे भारत के आज तक स्थापित परमाणु ऊर्जा संयंत्र भी अपनी पूरी क्षमता से उत्पादन शुरू कर सकेगें.अभी तक भारतीय परमाणु संयत्रों की क्षमता ४६८० मेगावाट की है जिसमें से २८४० मेगावाट बिजली का उत्पादन तो स्वदेशी यूरेनियम से होता है और शेष १८४० मेगावाट के लिए विदेशों से आयातित यूरेनियम पर निर्भरता रहा करती है. भविष्य में १९९८ जैसी किसी भी परिस्थिति से निपटने की कोई ठोस व्यवस्था न होने का कारण ही आज तक देश में परमाणु ऊर्जा को उस स्तर तक नहीं बढ़ाया जा सका है जहाँ तक वह पहुँच सकती थी. अब इस तरह के द्विपक्षीय समझौते के बाद इन परमाणु संयंत्रों की संख्या बढ़ाई जा सकती है और देश के ऊर्जा परिदृश्य को सुधारा भी जा सकता है.
                                                       यह अच्छा ही है कि हर बात पर मतभिन्नता रखने वाले देश के राजनैतिक दल भी परमाणु ऊर्जा पर एक सधी हुई नीति का अनुपालन करने के लिए तत्पर रहा करते हैं. इस समझौते के बाद यह भी संभव है कि वैश्विक परमाणु ऊर्जा कंपनियां भारत में इस क्षेत्र में अपने निवेश को बढ़ने के लिए आगे आएं. अमेरिका की कंपनियां इस सम्बन्ध में कड़े भारतीय प्रावधानों से बचने के लिए भारत सरकार पर दबाव बनती रही हैं जिससे २००८ के समझौते के बाद से अभी तक अमेरिकी परमाणु ऊर्जा क्षेत्र की प्रमुख कम्पनियों की शुरुवात भारत में नहीं हो सकी है. अब यदि अमेरिका भारत के साथ अपने औद्योगिक साथ को आगे बढ़ाना चाहता है तो उसे भी इस मुद्दे पर फिर से सोचना ही होगा क्योंकि रूस के बाद अब ऑस्ट्रेलिया और फ़्रांस से भी इस तरह की पहल शुरू हो चुकी है जिसमें निश्चित तौर पर अमेरिका की परमाणु लॉबी चुप नहीं बैठना चाहेगी और यह भारत के लिए एक बड़े अवसर के रूप में भी सामने आने वाला है क्योंकि इससे दोनों देशों को व्यापक लाभ मिल सकता है.        
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