भाजपा ने आख़िर कार बहुत सारा नुकसान उठाने के बाद संघ की शरण फिर से ली। ऐसा नहीं है कि वहां पर वैचारिक मतभेद पहले नहीं थे पर वाजपई जैसे नेता के चलते वे दिखाई नहीं देते थे। हर एक लोकतान्त्रिक पार्टी में इस तरह के मतभेद होना बहुत सामान्य है पर जिस तरह से भाजपा में अचानक ही विवादों की बाढ़ सी आई उसे देखकर तो यही लगता है कि कहने को चाहे जो हो पर वहां भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है ? आख़िर ऐसा क्या हो गया कि लोग इस तरह से एक दूसरे की टाँगें घसीटने लगे कि संभालना ही मुश्किल हो गया ? यह सच है कि बहुत पहले गोविन्दाचार्य ने जब यह कहा था कि भाजपा को चाल, चरित्र और चिंतन पर विचार करना चाहिए तो वे ठीक ही थे। जब पार्टी सत्ता सुख भोगती है तो बहुत सारे दोष उसमें अपने आप ही समाहित होते चले जाते हैं, यह पार्टी नेतृत्व को देखना चाहिए कि कहीं पर पार्टी पर सरकार हावी न हो जाए पर यहीं पर भाजपा से चूक हो गई और उसके सभी नेता सरकार में दिखाई देने लगे जब तक वाजपई की आभा रही तो सब छुपा रहा पर उस आभा के हटते ही पीछे का सच लोगों के सामने आने लगा। एक विचारशील पार्टी कहलाने के कारण लोग उससे कुछ अलग ही आशा लगाये थे पर वहां पर कुछ भी अलग नहीं था। ऐसा नहीं कि इन सब के बाद भाजपा ख़त्म होने जा रही है यदि सही समय पर सही कदम उठाने में पार्टी सफल रही तो वह बहुत मज़बूत होकर फिर से उठ खड़ी होगी। वर्तमान में उसका हौसला कमज़ोर हुआ है पर उसके आकार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है बस कितनी जल्दी इसके नेता कीचड़ फेंकने का काम बंद करते है इसका भविष्य इसी बात पर निर्भर करने वाला है...
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
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