कल आए कुछ आंकडों से यह साफ़ पता चलता है कि विश्व की आर्थिक मंदी से भारत कुछ हद तक उबर चुका है। पिछली तिमाही की समीक्षा से फिलहाल तो यही पता चल रहा है कि जल्दी ही भारत इस से बहार होगा। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि कमज़ोर मानसून से कृषि की विकास दर में कमी आएगी जो फिर से एक बार कुछ मंदी की ओर ले जा सकती है। इन सब बातों से इतना तो तय है कि चाहे जो हो भारत की गाँवों तक फैली अर्थ व्यवस्स्था को आसानी से हिलाया नहीं जा सकता। बड़े बड़े अर्थ शास्त्री अपने गणित में उलझे रहते हैं पर कहीं न कहीं से कुछ ऐसा हो जाता है जिसकी गणना उन्होंने कभी की ही नहीं होती। फिलहाल विकास दर में केवल चीन ही हमसे आगे दिखाई दे रहा है। देश की अर्थ व्यवस्था को यदि पूरी तरह से गाँवों से जोड़ दिया जाए तो शायद कृषि पर आधारित होने के कारण बहुत से झटके आसानी से झेले जा सकें। देश को आंकड़ों की नहीं विकास की ज़रूरत है, किसी भी हिस्से में विकास की रौशनी अगर नहीं पहुँच पाती है तो इसका सीधा ज़िम्मा सरकारों का होता है पर कहीं न कहीं हम नागरिक भी इसके लिए जिम्मेदार होते हैं। क्यों नहीं हम अपनी समस्याओं का हल अपने स्तर पर खोजने का प्रयास करते हैं? हर बात के लिए हमें सरकारों की ओर ताकने की आदत अब बदलनी ही होगी तभी विकास के सही मायने में हम भी देश के साथ कदम मिलकर चल सकेंगें.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
भारत की गाँवों तक फैली अर्थ व्यवस्स्था को आसानी से हिलाया नहीं जा सकता। बड़े बड़े अर्थ शास्त्री अपने गणित में उलझे रहते हैं पर कहीं न कहीं से कुछ ऐसा हो जाता है जिसकी गणना उन्होंने कभी की ही नहीं होती।
जवाब देंहटाएंगांवों की अर्थव्यवस्था तो गाँव वाले ही जाने | बाकीके लोगों के पल्ले नहीं पड़ती |