मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

फिर से वंदे मातरम

आजकल देश फिर से एक बेमतलब के विवाद में फंसा हुआ है। कुछ लोग वंदे मातरम के पक्ष में तो कुछ विपक्ष में खड़े दिखाई दे रहे हैं। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि देश ने बहुत कटुता के बाद बहु-प्रतीक्षित आज़ादी पाई थी। उस समय ही राष्ट्र गान और राष्ट्र गीत का निर्धारण किया गया था। यहाँ पर बात सम्मान की होनी चाहिए स्वाभिमान की होनी चाहिए न कि एक दूसरे को उलझाने की । मैं किसी विवाद में नहीं जाना चाहता पर कितने हिन्दुओं को या यह कह लीजिये कि कितने लोगों को वंदे मातरम याद है ? क्या जिसे वंदे मातरम याद नहीं वे सब देश द्रोही हैं ? जो इसके प्रति श्रद्धा तो रखते हैं पर वे इसे संस्कृत में होने के कारण याद नहीं कर पाते क्या वे सब देश के गद्दार हैं ? ज़रा सोच कर देखिये कुछ सालों पहले एक साप्ताहिक पत्रिका ने जब देश के तथा कथित माननीय सांसदों और विधायकों से जन गण मन सुनना चाहा था तो मुश्किल से २० % ही उसे ठीक तरह से सुना पाए थे ! अब जब देश के सांसदों और विधायकों को ही राष्ट्रगान तक याद नहीं है तो उनसे देश भक्ति की आशा नहीं की जानी चाहिए क्या ? वैसे भी देश में आज भ्रष्टाचार के सबसे ऊंचे पायदान पर नेताओं का ही स्थान है ? सवाल यह भी है कि सम्मलेन में इस तरह का प्रस्ताव पारित करने की क्या ज़रूरत थी ? क्या देश के किसी भी हिस्से में किसी मुसलमान को बाध्य किया जा रहा है कि वे इसे ज़रूर गायें ? देश के हिंदू ही इसे किसी से दबाव में नहीं गवाना चाहते हैं फिर इस तरह के प्रस्ताव पारित कर सम्मेलनों में क्या संदेश दिया जा रहा है। जब संविधान ने यह छूट पहले से ही दे रखी है कि आप चाहे तो इसे गा सकते हैं फिर ऐसे प्रस्ताव का क्या औचित्य बनता है ? हाँ यदि कहीं पर किसी को दबाव में कुछ करना पड़ रहा है तो उसे केवल उस स्तर पर ही देखना चाहिए न कि देश के आम जन मानस में संशय के बीज बो देने चाहिए ? क्या इस तरह के प्रस्ताव किसी स्तर पर समरसता ला सकते हैं ? शायद कभी नहीं ? फिर भी सम्मलेन करने वालों ने यह भी नहीं सोचा कि देश के गृह मंत्री को बुलाने के बाद उसी दिन ऐसा प्रस्ताव पारित करके क्या संदेश दिया जा रहा है ? देश में सभी को समान समझा जाता है तभी तो देवबदं में चिदंबरम आसानी से चले गए थे पर आगे से कोई भी इतनी आसानी से इस तरह के सम्मेलनों में जाना चाहेगा क्या ? एक छोटी सी बात को लेकर देवबंद ने अपनी मांग को देश के नेताओं के सामने उठाने का अवसर शायद अब खो दिया है ?


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3 टिप्‍पणियां:

  1. बात आपकी सही है कि किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता है । जैसा की हम सभी को मालुम है कि किसी भी देश के लिए उसका राष्ट्र गीत कितना मायने रखता है, देश का राष्ट्र गीत ही सभी धर्मो को एक छत के निचे लाता है और इसका उदाहरण हम आजादी की लड़ाई के समय देख भी चुके है। कितनी शर्म की बात है कि राष्ट्र गीत को ये कहकर गांने से इनकार करना कि ये हमारे धर्म के विरुद्ध है, शर्मसार करती है ऐसा व्यक्तव्य। आप नहीं गाना चाहते या आपको नहीं याद नहीं तो ये बात कोई और है। लेकिन आप उसे धर्म विरोधी बताये , ये तनीक भी सही ना होगा। और ज्यादा क्या कहूँ कृपया इससे जुड़ा हुआ मेरा लेख पढ़े http://mithileshdubey.blogspot.com/2009/11/blog-post_05.html

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  2. "....फिर भी सम्मलेन करने वालों ने यह भी नहीं सोचा कि देश के गृह मंत्री को बुलाने के बाद उसी दिन ऐसा प्रस्ताव पारित करके क्या संदेश दिया जा रहा है ?"

    मेरे भाई, अपना ये चिद्दू है न, इसे या तो अंगरेजी आती है या फिर तमिल, अब जो फतवा जारी हुआ, वो उर्दू में था, अब आप खुद ही सोच लो कि उसका क्या दोष ? मुझे तो संदेह है कि इस चिद्दू भैया को वंदेमातरम का मीनिंग भी ठीक से मालूम है या नहीं .......हा...हा...हां !

    हां, आप का यह तर्क ठीक नहीं लगता कि कितने हिन्दुओ को बंदेमातरम आता है, बात आने की नहीं, बात है उस चीज का सम्मान करने की जो राष्ट्र से जुडी है ! कितने लोगो को मालूम है कि हमारे संविधान में क्या-क्या है ? इसका मतलब यह तो नहीं कि आप संविधान का ही अनादर करने लगो ? और यदि संविधान के अनादर का मतलब कानूनी अपराध है तो मैं चैलेंज कर रहा हूँ देश के इन तथाकथित सेकुलरों और उनकी सरकार को कि अगर हिम्मत है तो उन मुल्लाओ के खिलाफ कानूनी कारवाही करके दिखाओ जिन्होंने फतवा जारी किया, जो वन्देमातरम का अन्दर कर रहे है क्योंकि वह राष्ट्र का सवाल है ! है हिम्मत ??????????????????????

    अफ़सोस अपने जैसे हिन्दुओ पर होता है जो किसी बात को ठीक से भी नहीं उठा पाते !

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