कल जिस तरह से बांग्लादेश ने उल्फा प्रमुख अरविन्द राजखोवा को समर्पण के बाद हिरासत में ले भारत को सौंप दिया उससे भारत बांग्लादेश के बीच में इस महीने होने वाली बात-चीत के सकारात्मक होने के आसार बढ़ गए हैं। यह सही है कि भारत के विद्रोहियों को शरण देकर किसी भी तरह से सकारात्मक बात नहीं की जा सकती है। बांग्लादेश का यह कदम भारत में उसके प्रति विश्वास बढ़ाने में सहायक होगा और जिन मुद्दों पर बात करने से पहले इस बात को सन्दर्भ दिया जाता था अब वह भी नहीं रहेगा। भारत सरकार ने जिस तरह से यह कहा है कि संविधान के अन्दर जिस तरह की बात की जा सकती है उसके लिए वह तैयार है तो इन संगठनों के लिए यह एक अच्छा संकेत हो सकता है। पर अपने स्वार्थों के लिए ये संगठन किस तरह से जनता को उनके हितों की बात समझा कर बरगलाने में सफल हो जाते हैं यही चिंता का विषय है। इस तरह के संगठनों के पनपने के पीछे सबसे बड़ी बात तो यही होती है कि हमारा सरकारी तंत्र वहां तक नहीं पहुँच पाता है और जनता की समस्याओं को ये संगठन हथियार के माध्यम से उठाने की बात समझा ले जाने में सफल हो जाते है। इसके लिए कुछ हद तक नहीं बल्कि पूरी तरह से सरकारी अक्षमता ही दोषी होती है। राज्य सरकारों की यह ज़िम्मेदारी बनती है की वे विकास और अधिकार की बात करते समय समान भाव रखें किसी एक क्षेत्र में विकास और दूसरे का पिछड़ापन भी विद्रोह को जन्म दे देता है।
फिलहाल बांग्लादेश ने किस समझौते के तहत राजखोवा को हिरासत में लिया है और भारत ने उसके प्रति किस तरह का व्यवहार करने का वचन बांग्लादेश को दिया है यह किसी को पता नहीं है। फिर भी अगर किसी बात या समझौते के तहत यह प्रक्रिया शुरू की गई है तो इसका सकारात्मक लाभ लेने का प्रयास किया जाना चाहिए। उल्फा अगर बात चीत के लिए राज़ी है तो उससे वह भी की जानी चाहिए साथ ही उल्फा के आन्दोलन के कारण हुए जान-माल के नुकसान के लिए दोषियों को सज़ा भी दिलाई जानी चाहिए। इस तरह के मुक़दमें विशेष अदालतों में चलाये जाने चाहिए जिससे लम्बी न्यायिक प्रक्रिया से बचा जा सके और शीघ्र ही दोष साबित होने पर सज़ा भी दी जा सके।
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
आप जो भी सोचें..मुझे कोई उम्मीद नहीं है.
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