भारत सरकार की एक योजना के तहत कश्मीरी पंडितों को फिर से वापस घाटी में बसाने के लिए राज्य सरकार ने ३००० नौकरियों की एक पेशकश की है जिसका कश्मीरी पंडितों ने स्वागत किया है पर इस पूरे मामले में कठोर नियमों की सब तरफ से आलोचना भी हो रही है. यह सही है कि कश्मीरी पंडितों के बिना कश्मीर और कश्मीरियत अधूरी है पर यह बात जब घाटी का आम आदमी भी महसूस करे तब बात बन सकती है. आखिर घाटी के अन्य लोगों के रहते हुए ही तो इन लोगों को अपना सब कुछ छोड़कर देश के अन्य हिस्सों में विस्थापितों की तरह रहना पड़ा है. और अब एक पूरी पीढ़ी है जिसने कश्मीरी पंडितों को कश्मीर में देखा ही नहीं है.
सरकार केवल पुनर्वास योजनायें बनाकर उनको नौकरी दे सकती है पर उनके मन में विश्वास जगाने का काम तो केवल स्थानीय लोग ही कर सकते हैं ? क्या स्थानीय लोग भी इस बात को लेकर उत्साहित हैं ? कहीं ऐसा न हो कि कोई अलगाववादी समूह घाटी के युवाओं को भड़काने में लग जाये कि इन पंडितों के कारण ही इतनी सारी नौकरियां घाटी के मुसलमानों के हाथ से निकल गयी तो क्या होगा ? जिस तरह से सरकार ने नियमों में कड़ाई की है कि इस योजना के तहत काम करने वाले लोगों को प्रदेश के बाक़ी हिस्सों में स्थानांतरित नहीं किया जायेगा और उन्हें घाटी में ही अपनी नौकरी पूरी करनी होगी वह वहां के ज़मीनी हालत को देखते हुए कुछ अधिक ही कठोर हैं. यह सही है कि कश्मीर में सबको रहना चाहिए पर क्यों नहीं भारत सरकार पूरे देश की अपनी सेवाओं में कश्मीरियों के लिए कुछ पद आरक्षित नहीं कर देती जिससे ये कश्मीरी खुशबू पूरे भारत में रच बस जाये और सामान्य नियमों के तहत उन्हें जम्मू और कश्मीर प्रदेश की पूरी भौगोलिक सीमा में काम करने की छूट भी दी जाये. कोई सेवा शर्त इतनी कठोर कैसे हो सकती है कि आपको हर हालात में घाटी में ही काम करना होगा ? क्या यह कश्मीरी पंडितों के मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं है ? जब बात कश्मीरी मुसलमानों की आती है तो मानवाधिकार आगे आ जाता है पर पंडितों के लिए वहीं मान दंड अपनाने में सरकारें कोताही बरतने लगती हैं. क्यों ?? शायद इसलिए कि वे देश में वोटों का एक बड़ा हिस्सा नहीं हैं ? उनकी भावनाओं की कोई कद्र की जाये या नहीं वे अपने हिसाब से पिछले २० वर्षों से जी रहे हैं और आगे भी जी ही लेंगें ?
बांग्लादेशी घुसपैठियों के बारे में बोलते समय सरकारों के स्वर बदल जाते हैं और अपने कश्मीरी पंडितों के बारे में सही बात बोलने में भी ज़बान तालू से चिपक जाती है ? प्रधानमंत्री जी कश्मीरी पंडितों को किसी पुनर्वास की भीख नहीं चाहिए.... अगर दे सकते हैं तो उन्हें उनका सम्मान लौटा दे और इस तरह की शर्तों पर उन्हें नौकरी करने के लिए बाध्य न करें जिसमें हर समय उनकी जान खतरे में ही बनी रहे ? देश के लिए कश्मीरी पंडित शान हैं जिन्होंने अपने को बहुत शालीनता से जिंदा रखा है और उनकी शालीनता के कारण ही आज तक किसी भी संस्था ने उनकी उचित मांग पर भी ध्यान नहीं दिया है फिर भी वे अपने आप को जिंदा रखे हैं क्या यह कम है ? सलाम है कश्मीरी पंडितों को आप सभी के जज़्बे को और धिक्कार है अपने सहित सभी भारतीयों को जो आपके घरों को भी सही सलामत नहीं रख सके ? हम तो शायद अब माफ़ी के भी हकदार नहीं हैं ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
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