देश की धड़कनों को जोड़ने वाली रेल उत्तर प्रदेश में जाट आन्दोलन के कारण फिर से संकट में है क्योंकि रेल का जितना विस्तार है उसके अनुसार उसके पास अपने सुरक्षा इंतजाम बिलकुल भी नहीं हैं ? जिस तरह से पूरे भारत में रेल चलती है और लोगों के जीवन को गतिशील बनाये रखती है उससे तो यही लगता है कि शीघ्र ही उसे अपने सुरक्षा तंत्र के बारे में भी गंभीरता से सोचना होगा. पिछले कुछ वर्षों से हर तरह के आन्दोलन में रेल ही सबसे अधिक प्रभावित होती रही है. रेल को सुरक्षा देना राज्यों का मसला है और कोई भी राज्य सरकार किसी भी स्तर पर यह कहने की हक़दार नहीं है कि वह रेल नेटवर्क को पूरी सुरक्षा देती है या फिर उसकी ऐसी कोई इच्छा भी है ? लोगों को आन्दोलन का पूरा हक संविधान ने दे रखा है पर अपने अधिकार मांगने के लिए इस तरह से लाखों लोगों की जिंदगी को बंधक बनाना आख़िर हमारे देश में अपराध की श्रेणी में क्यों नहीं आता है ?
काफी समय से रेल को रोकना भी किसी आन्दोलन की बड़ी सफलता मानी जाती थी पर जिस तरह से आज हर मसले पर लोग रेल को निशाना बनाने में लगे रहते हैं उससे तो यही लगता है कि अब लोगों को केवल अपने से ही मतलब रह गया है ? इस तरह के किसी भी आन्दोलन के कारण महीनों पहले से अपनी यात्रा निश्चित कर चुके लोगों के लिए कितनी परेशानी का कारण बन जाया करती है इसका अंदाजा केवल वही लोग लगा सकते हैं जिनको इस तरह की किसी भी घटना से नुक्सान होता है. आख़िर क्या कारण है कि देश में असहयोग आन्दोलन का रूप बिगड़ कर इतना ख़राब हो चुका है कि अब इन्हें आन्दोलन के स्थान पर अराजकता कहना उपयुक्त होगा ? पहले गुर्जर आन्दोलन में राजस्थान सरकार जिस तरह से विफल रही थी ठीक उसी तरह से अब उत्तर प्रदेश सरकार भी अब पूरी तरह से असफल रही है. माया सरकार के पास चंद सपाइयों से निपटने के लिए तो समय और पुलिस बल है पर लखनऊ दिल्ली रेल मार्ग को इतने दिनों से बंद करके बैठे जाटों के लिए समय नहीं है कि उनसे कोई सार्थक बात की जाये और बात के लिए राज़ी न होने पर उनको बल पूर्वक हटाया भी जाये ?
अगर सपाई किसी रेल को रोकने का प्रयास करते तो शायद कानून व्यवस्था के नाम पर माया सरकार के बंधक अधिकारी उनका कचूमर निकलने में भी नहीं चूकते पर जाति के नाम पर आरक्षण मांग रहे जाटों की इस तरह की अराजक गतिविधियों में उसे कुछ भी गलत नहीं लग रहा है ? होली का त्यौहार भी इसी हफ्ते आ गया है और जिस तरह से दिल्ली या उसके आस पास की जगहों पर रहने वाले प्रदेश के नागरिक अपने घरों को इस समय लौटते हैं तो रेल के न चलें से स्थितयां बहुत ख़राब होती जा रही हैं, उस पर भी राज्य सरकार को यह समझ नहीं आ रहा है कि रेल मार्ग खुलवाने का प्रयास किया जाना चाहिए और साथ ही तब तक राज्य सड़क परिवहन की अतिरिक्त बसें इस मार्ग पर चलायी जाएँ जिससे लोगों को अपने घरों तक वापस जाने में समस्याओं का सामना न करना पड़े. फिलहाल रेल की हालत उस गरीब जैसी है जिसकी जवान बीवी को गाँव के बुज़ुर्ग भी भौजाई कहकर बुलाते हैं और वह गरीब किसी से कुछ कहने की हिम्मत भी नहीं रखता है ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
काफी समय से रेल को रोकना भी किसी आन्दोलन की बड़ी सफलता मानी जाती थी पर जिस तरह से आज हर मसले पर लोग रेल को निशाना बनाने में लगे रहते हैं उससे तो यही लगता है कि अब लोगों को केवल अपने से ही मतलब रह गया है ? इस तरह के किसी भी आन्दोलन के कारण महीनों पहले से अपनी यात्रा निश्चित कर चुके लोगों के लिए कितनी परेशानी का कारण बन जाया करती है इसका अंदाजा केवल वही लोग लगा सकते हैं जिनको इस तरह की किसी भी घटना से नुक्सान होता है. आख़िर क्या कारण है कि देश में असहयोग आन्दोलन का रूप बिगड़ कर इतना ख़राब हो चुका है कि अब इन्हें आन्दोलन के स्थान पर अराजकता कहना उपयुक्त होगा ? पहले गुर्जर आन्दोलन में राजस्थान सरकार जिस तरह से विफल रही थी ठीक उसी तरह से अब उत्तर प्रदेश सरकार भी अब पूरी तरह से असफल रही है. माया सरकार के पास चंद सपाइयों से निपटने के लिए तो समय और पुलिस बल है पर लखनऊ दिल्ली रेल मार्ग को इतने दिनों से बंद करके बैठे जाटों के लिए समय नहीं है कि उनसे कोई सार्थक बात की जाये और बात के लिए राज़ी न होने पर उनको बल पूर्वक हटाया भी जाये ?
अगर सपाई किसी रेल को रोकने का प्रयास करते तो शायद कानून व्यवस्था के नाम पर माया सरकार के बंधक अधिकारी उनका कचूमर निकलने में भी नहीं चूकते पर जाति के नाम पर आरक्षण मांग रहे जाटों की इस तरह की अराजक गतिविधियों में उसे कुछ भी गलत नहीं लग रहा है ? होली का त्यौहार भी इसी हफ्ते आ गया है और जिस तरह से दिल्ली या उसके आस पास की जगहों पर रहने वाले प्रदेश के नागरिक अपने घरों को इस समय लौटते हैं तो रेल के न चलें से स्थितयां बहुत ख़राब होती जा रही हैं, उस पर भी राज्य सरकार को यह समझ नहीं आ रहा है कि रेल मार्ग खुलवाने का प्रयास किया जाना चाहिए और साथ ही तब तक राज्य सड़क परिवहन की अतिरिक्त बसें इस मार्ग पर चलायी जाएँ जिससे लोगों को अपने घरों तक वापस जाने में समस्याओं का सामना न करना पड़े. फिलहाल रेल की हालत उस गरीब जैसी है जिसकी जवान बीवी को गाँव के बुज़ुर्ग भी भौजाई कहकर बुलाते हैं और वह गरीब किसी से कुछ कहने की हिम्मत भी नहीं रखता है ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
वोटों की लहलहाती फसल किसे अच्छी नहीं लगती.
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