वोट फार इंडिया अभियान के तहत एक स्वयंसेवी संस्था ने संसद और सांसदों के बारे में पूरे एक साल की रिपोर्ट जारी की है जिससे कई दिलचस्प बातें सामने निकल कर आई हैं. सबसे बड़ी बात यह रही कि युवा सांसद भले ही संसद में कम दिखाई दिए हों पर उन्होंने अपने चुनाव क्षेत्रों में अधिक समय लगाकर वहां की मुख्य समस्याओं पर गंभीरता से काम करने में बहुत दिलचस्पी दिखाई है. कुल उपस्थिति के मामले में महिला सांसदों(७८%) ने पुरुष सांसदों(७५%) से बाज़ी मार ली है. केवल १२ सांसद ऐसे रहे हैं जिन्होंने शत प्रतिशत उपस्थिति दिखाई जिनमे सत्ताधारी कान्ग्रेस के ७ सांसद हैं. छोटे राज्यों के सांसदों ने उपस्थिति में बड़े राज्यों से बाज़ी मारी और मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड, दिल्ली और लक्षदीप के सांसदों ने शुरुआत के ५ स्थान हासिल किये. इससे यह पता चलता अहि कि एक बार सांसद बन जाने पर लोग अपनी इस ज़िम्मेदारी को कैसे लेते हैं कायदे से होना यह चाहिए कि बिना उचित कारण के बैठकों से दूर रहने वाले सांसदों के वेतन और भत्तों में कटौती कर जुर्माना भी लगाया जाए जब कर्मचारी को काम नहीं करने पर वेतन नहीं मिलता है तो जिन पर देश के विकास का भार है उनके लिए कोई दंड क्यों नहीं ?
कुल ७२ दिन चली संसद की बैठकों में केवल २६० घंटे २० मिनट काम हुआ और १९४ घंटे ५८ मिनट विभिन्न कारणों से हमारे सांसदों ने बर्बाद किये. साल भर में लोकसभा की कार्यवाही ११,५१२ बार बाधित हुई और ११० बार स्थगन भी करना पड़ा. सांसदों ने गर्भ गृह तक पहुँचने में भी कोई कमी नहीं रखी और वे १६३ बार वहां तक अपनी बात को कहते हुए पहुंचे. पिछले साल के मुकाबले इस बार यह संख्या अधिक थी क्योंकि पिछली बार केवल ११३ बार ही यह किया गया था. पूरे साल में २७ बार बहिर्गमन भी किया गया. केवल ३ सांसदों ने ही २०० से ज्यादा सवाल पूछ डाले जबकि प्रश्नों का शतक लगाने वाले सांसदों की संख्या ११२ रही. लक्षदीप, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, गुजरात और केरल से जुड़े सांसदों ने सर्वाधिक प्रश्न पूछे जबकि ८० लोगों ने पूरे साल सवाल पूछना मुनासिब ही नहीं समझा. जन लोगों ने कोई सवाल नहीं पूछा अब उनसे यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि आख़िर वे संसद में क्या करते रहे ? इस तरह से लगभग १७ % देश की आबादी की संसद में कोई आवाज़ ही सुनाई नहीं दी. सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी रही कि सर्वाधिक प्रश्न वित्त विषय पर ही पूछे गए और पूछने वाले औद्योगिक पृष्ठभूमि के थे.
सांसद निधि का सर्वाधिक उपयोग करने में मिजोरम के सांसद ने किया और हमारी लोकसभा में २० माननीय ऐसे भी रहे जिन्होंने विकास निधि का एक भी पैसा खर्च करना उचित नहीं समझा. अगर कुल मिलकर देखा जाए तो पूरी संसद के काम काज को औसत से नीचे ही कहा जायेगा क्योंकि जिस काम के लिए इन लोगों को चुना जाता है अगर वही ठीक ढंग से नहीं हो पाए तो फिर इनको चुनने वाली जनता पर क्या बीतती है ? अच्छा हो कि हर बार संसद के सत्र के बाद भी ऐसी ही रिपोर्ट जारी की जाये और जनता के सामने यह पूरा सच भी आये कि हमारे चुने हुए लोगों ने आख़िर देश, समाज और अपने क्षेत्र के बारे में कितनी चिंता दिखाई ? जब तक इन सांसदों पर इस तरह का दबाव नहीं बनाया जा सकेगा तब तक किसी भी स्तर पर किसी की कोई ज़िम्मेदारी तय नहीं हो पायेगी. देश के समग्र विकास के लिए यह बहुत आवश्यक है कि सांसद पूरे मनोयोग से काम करने में दिलचस्पी दिखाएँ और केवल इस पद से मिलने वाली सुविधाओं में ही न खो जाएँ.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
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