देश में व्याप्त ऊर्जा संकट को देखते हुए कहीं से भी यह नहीं कहा जा सकता है कि देश अपने साधनों से कभी ख़ुद को ऊर्जा के मामले में आत्म निर्भर बना पाने में सक्षम होगा क्योंकि जिस तरह की सरकाई नीतियां बनायीं जाती हैं उसके लिए बहुत संसाधनों की आवश्यकता होती है और उतने संसाधन जुटा पाना आज के समय में सरकारों के लिए कठिन होता जा रहा है. ऐसे में बिहार जिसे देश में हर तरह के अँधेरे के लिए जाना जाता है उसने ही एक बार फिर से अपनी जीवटता और लगन से धान की भूसी से बिजली पैदा करके गाँवों को रोशन कर दिया है. यह सब किसी बड़े लाभ के लिए नहीं किया गया बल्कि इसको पूरी तरह से सेवा भाव के साथ शुरू किया गया और बिहार के तमकुआ गाँव में पहली बार इसी तरह से पैदा की गयी बिजली ने पूरे गाँव को रोशन कर दिया. जो गाँव पहले प्रति परिवार १५० रु० खर्च करने के बाद भी अँधेरे में डूबा रहता था वही अब पूरी रात सिर्फ १०० रु० खर्च करके रोशन रहता है.
यहाँ पर सवाल यह नहीं है कि आख़िर इस तरह से कितने लोगों तक बिजली पहुंचाई जा सकती है बल्कि यह है कि जिन गाँवों तक आज तक रौशनी की किरण नहीं पहुंची है उन्हें इस तरह की परियोजनाओं के द्वारा जोड़कर बिजली पहुँचाने का काम क्यों नहीं किया जा सकता है ? आज भी सरकारी तंत्र की कमियों के बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है पर इस तरह के प्रयासों में अगर सरकारी तंत्र भी जुड़ जाए तो पूरे देश की तकदीर भी बदल सकती है. आज पूरे देश में बायोमास पर आधारित जैव कचरे और अन्य उपलब्ध वस्तुओं से बिजली बनाने का काम पूरी लगन से किया जाना चाहिए. इस परियोजना से जुड़े रत्नेश यादव ने बताया कि पूरे भारत में भूसी की उपलब्धता को देखते हुए यह आंकलन लगाया गया है कि इससे २७ गीगा वॉट बिजली बनाई जा सकती है जो देश को कम संसाधनों से ही पूरी तरह से बिजली के मामले में आत्म निर्भर बना सकती है. आज भी सरकारी नीतियां कुछ इस तरह से बनाई जाती हैं जिन पर सरकार का नियंत्रण पूरी तरह से होता है जो हमेशा ही काम काज में बाधा डालता रहता है.
आज आवश्यकता इस बात की है कि केंद्र सरकार इस तरह की छोटी परियोजनाओं पर विचार करे जिससे गाँवों में ही रोजगार उपलब्ध होने के साथ ही बिजली भी बन सके ? पहले ही देश में चीनी मीलों के माध्यम से बनायीं गयी बिजली का उपयोग किया जा रहा है इससे जहाँ एक तरफ बड़ी परियोजनाओं में लगने वाला धन बच रहा है और साथ ही बनी बनायीं बिजली मिल रही है जिसका तय मूल्य ही केवल सरकार को चुकाना होता है. यदि दूर दराज के गाँवों में इस तरह की स्वावलंबी योजनायें लागू हो सकें तो कहीं न कहीं से ये गाँवों की तकदीर बदलने में कामयाब हो सकेंगीं. आने वाले समय में केंद्र सरकार ने जिस तरह से गाँवों में देश पैसा देने की योजना तैयार की है तो इस तरह की योजनाओं में पैसे लगाकर बिजली की लाइन हानियों को कम किया जा सकता है साथ ही स्थानीय स्तर पर इसका नियंत्रण होने से आंधी पानी के समय विद्युत आपूर्ति में बाधा पड़ने की सम्भावना भी बिलकुल न के बराबर होगी. पर क्या इस तरह की सोच अभी भारत में विकसित होने की तरफ जा भी रही है.....
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
लोग पागलों की तरह खुश होते हैं इस तरह विज्ञानं और व्यवहारिक जीवन की जरूरतों में समन्वय से, कुछ दिनों पहले जठ्रोपा के वृक्षों से तेल पैदा करने की ऐसी ही ख़ुशी हुई थी
जवाब देंहटाएंकभी सोचिये पशु क्या खायेंगे , खाद कहाँ से आएगी, पहले ही सरकार ने सारा चारागाह बेच दिया शहरों और कस्बों में, कह दिया ये खेती योग्य हैं ही नहीं कुछ नमूनों को हम व्यावहारिक मान कर अरबों रुपये बैंकों से मंज़ूर करा लेते हैं फिर शुरू होता है बरबादियों का दौर , जेनेटिक बीजों की बात हो रासायनिक खाद हो कीटनाशक हों अंत में एक लाख करोर प्रतिवर्ष या तो सरकार छापती है या डूबता है ,पेट तो भर नहीं सकते हम अपनी बढ़ती जनसंख्या का, हमारे प्रयोग भी भाप इंजिन के जमाने के हैं जब लकड़ियाँ जलाई जाती थी ऊर्जा के लिए, हमें हमारी वैज्ञानिक बिरादरी पर तरस आता है , सरकारी कार्यालयों के किरानी हो गए हैं