मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 22 अगस्त 2011

बिना झुके बातचीत...

जिस तरह से अब सरकार और अन्ना दोनों ने ही किसी भी माध्यम के सहारे आपस में बात चीत के रास्ते फिर से खोलने की बात शुरू की है वह देश के लिए एक अच्छा संकेत है. अगर सरकार संसद में और अन्ना रामलीला मैदान में अपनी बात पर डटे रहेंगें तो इस मामले को आख़िर कैसे सुलझाया जा सकता है ? यह एक गंभीर मुद्दा है और इस पर पूरी गंभीरता के साथ विचार किये जाने की आवश्यकता है. दोनों पक्षों की तरफ़ से किसी भी तरह की फ़ालतू बात से विश्वास का माहौल बनाने में और अधिक समस्या आने वाली है जो कि किसी भी स्तर पर ठीक नहीं है क्योंकि अब देश को एक मज़बूत लोकपाल की आवश्यकता है अन्ना की टीम के पास जन समर्थन है तो सरकार के पास उसे पारित करवाने की शक्ति तो ऐसे में इन दोनों केन्द्रों को साथ में मिलकर कुछ करना ही होगा. केवल एक तरफ़ से अब कुछ भी होने वाला नहीं है सरकार यह कहकर बच नहीं सकती कि बिल अब लोकसभा में है तो अन्ना के भी इस तरह से डटने से देश का भला नहीं होने वाला है.
    किसी भी व्यक्ति के लिए देश के कानून में सुधार की मांग करने में कोई बुराई नहीं है पर हमारे यहाँ हमेशा से ही जिस तरह से जन आकांक्षाओं को दबाने और कुचलने की सरकारी परंपरा सी रही है उससे कई बार बातें बहुत बिगड़ जाया करती हैं. देश को चलाने वाले नेता चाहे कैसे भी रहे हों पर इस देश को आज भी अंग्रेजों की बनाई नौकरशाही ही चला रही है जो अपने आप को इस देश से बाहर का समझने में ख़ुशी महसूस करती है ? नेता लोग भी अपने स्वार्थ के कारण ही इन पर निर्भर रहा करते हैं और सबसे बड़ी बात यह भी है कि देश को चलाने के लिए केवल संसद पहुंचकर किसी भी तरह से कोई मंत्री पद पा जाने वाले लोग आख़िर किस तरह से देश के बारे में सोच सकेंगें ? हर जगह पर बड़े कामों या छोटे कामों को करने के लिए भी किसी न किसी पात्रता की आवश्यकता होती है पर देश का दुर्भाग्य है कि लोकतंत्र के नाम पर कई बार ऐसे लोग संसद में पहुँच जाते हैं जिनको देश की स्थिति और समस्याओं से कोई मतलब ही नहीं होता है. केवल भीड़ तंत्र ने देश में लोकतंत्र का मजाक बनाकर छोड़ दिया है लोग किसी भी तरह से वोट पाकर संसद में पहुँचने लगे हैं. 
    आज अन्ना जो कुछ भी कर रहे हैं वह देश में आवश्यक राजतन्त्र की नीतियों और वास्तव में चल रहे लोकतंत्र के अंतर के कारण ही उपजा हुआ जन आक्रोश है और ऐसा नहीं है कि इस आक्रोश को अपना रास्ता चुनना नहीं आता है पर जब पूरी दुनिया में आर्थिक संकट है और लोग भारत की आर्थिक स्थिति के कारण यहाँ आकर कुछ करना चाहते हैं तो ऐसे समय में इस तरह के लम्बे चलने वाले आन्दोलन देश की साख़ को कम करते हैं अब यह सरकार पर है कि वह अन्ना के इस आन्दोलन से उपजे सवालों का कहाँ तक सही और सटीक उत्तर अन्ना और देश को दे पाती है क्योंकि इस मामले में दोनों पक्षों ने ही कई बार सूझ बूझ से काम लिया है और कई बार दोनों के ही अड़ने से बनते हुए मामले बिगड़े भी हैं. फिलहाल तो दोनों पक्षों के लिए यह आवश्यक है कि दोनों तरफ़ से बात-चीत का माहौल बनाए के प्रयास किये जाएँ और दोनों ही पक्ष अनावश्यक बयानबाजी से भी बचें. देश को दोनों की आवश्यकता है दोनों ही तरफ़ अच्छे लोग मौजूद हैं पर संवादहीनता के कारण देश को इनका लाभ नहीं मिल पा रहा है जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है. 
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