मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

अन्तरिक्ष में एक और क़दम

   भारत ने पीएसएलवी सी-१८ के माध्यम से जिस तरह से फ़्रांस के सहयोग से बनाये गए उपग्रह के साथ अन्य तीन उपग्रहों को एक साथ उनकी कक्षा में स्थापित करने की सफल कोशिश की है उससे यही लगता है कि हमारे देश के वैज्ञानिक बहुत ही सधे क़दमों से आगे बढ़ते हुए देश में विज्ञान के नए आयाम खोलते जा रहे हैं. अभी तक जिस तरह से अन्तरिक्ष में केवल कुछ देश ही आगे रहा करते थे अब भारत भी उनके साथ चलने की स्थिति में आ गया है. इस बार मौसम के अध्ययन के लिए भेजे गए उपग्रह को भेजकर भारत ऐसे प्रयोग करने वाला दुनिया का दूसरा देश बन गया है जिस तरह से काफ़ी हद तक स्वदेशी तकनीक पर आधारित ये प्रक्षेपण सस्ते पड़ते हैं उससे भी भारत का दुनिया लोहा अन्तरिक्ष बाज़ार में माना जाने लगा है. अभी तक जो कुछ भी होता रहा है उसमें कई बड़ी सफलताओं के साथ कुछ असफलताएं भी जुड़ी हुई हैं पर किसी भी अभियान में नए प्रयोग करने पर यह सब चलता ही रहता है जिनसे चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है.
         आज देश में इस तरह के अभियान जिस स्तर पर चलने चाहिए नहीं चल पा रहे हैं क्योंकि देश में शिक्षा प्राप्त हमारे वैज्ञानिक विदेशी कम्पनियों और विदेशों के साथ बेहतर अवसर के कारण काम करना पसंद करते हैं जिससे हमारे संस्थानों से निकलने वाली मेधा का देश के कामों के लिए उपयोग नहीं हो पाता है. अभी कुछ दिन पहले इनफ़ोसिस के नारायणमूर्ति ने जिस तरह से आईआईटी में वास्तविक शिक्षा में कमी होने पर चिंता जताई थी उससे भी यही लगता है कि अभी भी देश को शिक्षा के स्तर में व्यापक सुधार करने की गुंजाईश है और बिना इसे सुधारे नए प्रयोग करने लायक मेधा सामने नहीं आ पायेगी क्योंकि आज जिस तरह से इन बड़ी परीक्षाओं में सफलता प्राप्त करने के लिए छोटे रास्तों को निकाल लिया गया है उससे कोई यहाँ तक पहुँच तो सकता है पर उसमें यह क्षमता विकसित नहीं सकती कि वह नए प्रयोगों और अन्य वैज्ञानिक गतिविधियों पर ध्यान दे सके ? अब देश को इस बारे में अन्य सिरे से सोचने की ज़रुरत है जिससे हम अपनी मेधा का सही उपयोग कर सकें.
     यह सही है कि पिछले दो दशकों में भारत ने अन्तरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में नए आयाम स्थापित किये हैं जो सीमित संसाधनों में किसी भी देश ने नहीं किये हैं. देश में शिक्षा प्राप्त वैज्ञानिक अगर देश के लिए ही काम करने लगें और सरकार उन्हें इस तरह के शोध करने के लिए पूरी सुविधाएँ दिलाने में सफल हो सके तो अगले दो दशकों में ही देश बहुत आगे जा सकता है. यह भी सही है कि देश में सीमित संसाधनों में किसी भी सरकार या संगठन के लिए पूरी तरह से काम कर पाना आसान नहीं होता है फिर भी कहीं न कहीं से पूरी तरह से व्यावसायिक रुख को अपना कर इसरो जैसे संसथान अपने लिए धन की व्यवस्था भी करने का प्रयास करने में लगे हुए हैं जिससे एक तरफ़ तो भारत के प्रयोग आगे बढ़ते जायेंगें और दूसरी तरफ़ संस्थान को अपने खर्चे चलाने के लिए धन की कमी भी नहीं आने पायेगी. वर्तमान सरकार ने जिस तरह से शिक्षा में सुधार करने की तरफ कुछ क़दम बढ़ाये हैं उन्हें तेज़ी से अमल में लाये जाने की आवश्यकता है जिससे आने वाले समय में भारत हर मामले में आगे ही बढ़ता दिखाई दे सके.   

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