उत्तर प्रदेश में ५ वर्षों तक सत्ता का सुख उठा चुकी मायावती ने जाते
जाते जिस दांव को खेलने की कोशिश की है उससे यही लगता है कि वे भी यह मान
चुकी हैं कि प्रदेश में उनके ख़िलाफ़ लहर चल रही है. विधान सभा के आख़िरी
सत्र में जहाँ पर आवश्यक विधायी कार्य ही निपटाए जाने की परंपरा रही है
वहीं इस बार माया सरकार यहीं पर प्रदेश के बंटवारे से सम्बंधित
विधेयक भी पारित करना चाहती है और साथ ही वह राज्य के विभाजन को एक बड़ा
मुद्दा बनाकर चुनाव में वोट बटोरने की कोशिश भी करके देखना चाहती हैं.
पिछली बार उनका और सतीश मिश्र का दांव कुछ हद तक चल भी गया था पर साथ ही
तत्कालीन मुलायम सरकार के ख़िलाफ़ जनता के गुस्से ने भी उनकी राह को आसान
कर दिया था जबकि अभी तक उन्हें यही ग़लतफ़हमी है कि उनकी भाईचारा समितियों ने
बहुत बड़ा करिश्मा कर दिखाया था जबकि किसी अन्य की गलतियों का लाभ उन्हें
अनायास ही मिल गया था क्योंकि तब मुलायम के मुकाबले में कोई अन्य दल सामने
नहीं दिखाई दे रहा था.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
अगर माया सरकार इस बारे में वास्तव में ही कुछ करना चाहती थी तो उसे
अपनी सरकार के रहते ही इस बारे में समय से कुछ करना चाहिए था और आज के समय
में अगर बसपा के टिकट कटे हुए प्रत्याशी और बाग़ी सदस्य विपक्ष के साथ
मिल गए तो माया सरकार के लिए बहुत बड़ी समस्या खड़ी कर सकते हैं और अगर मुलायम
सिंह ने अपने पत्ते ठीक ढंग से खेले तो हो सकता है कि माया सरकार के लिए
लेखानुदान मांगें पारित करवाने में ही संकट खड़ा हो जाये ? प्रदेश को एक
अच्छे शासक की आवश्यकता है न कि छोटे राज्यों की ? देश कि तरक्की के लिए
आँखों में सपने होने चाहिए जबकि नेताओं की आँखों में आज केवल सत्ता के हसीन
सपने ही तैरा करते हैं ? माया सरकार के पास जनता की तरफ़ से मिला हुआ बहुत
ही अच्छा अवसर था कि वे वास्तव में अपने सर्वजन के नारे को लागू करवा पाती
और प्रदेश कि सत्ता पर अपनी पकड़ भी मज़बूत कर पातीं पर उन्होंने इस अवसर को
केवल स्मारक बनवाने तक ही सीमित रखा और प्रदेश के दलितों और वंचितों की
स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आ पाया. इस ज़मीनी हक़ीकत का अंदाज़ा उन्हें
भी है तभी वे वोट पाने के लिए अपने शासन पर भरोसा करने के बजाय छोटे राज्य
वाले छोटे रास्ते पर चलना चाह रही हैं.
छोटे राज्यों के स्थान पर सुशासन को वरीयता देनी चाहिए क्योंकि बिहार के
बंटवारे से झारखण्ड या बिहार में क्या हुआ यह सभी जानते हैं ? जब तक बिहार
में नितीश कुमार का सुशासन नहीं आया तब तक वहां पर सारा कुछ वैसे ही चलता
रहा. इस मामले में उत्तर प्रदेश और उत्तरखंड के बीच अभी तक संपत्तियों और
संसाधन के बंटवारे के पेंच फसे हुए हैं जिनका हल कोई निकलना ही नहीं चाहता
है. छत्तीसगढ़ की तुलना इसमें नहीं की जा सकती है क्योंकि वह भाग मध्य
प्रदेश का प्राकृतिक संसाधन से संपन्न भाग ही हुआ करता था. उत्तराखंड में
केवल अधिक सम्पदा के कारण ही विकास को गति मिल पाई है फिर भी छोटे राज्य की
अवधारणा पर कौन सा राज्य खरा उतरा है यह कोई बताने को तैयार नहीं दीखता है
? आज नेता अपनी अक्षमता का ठीकरा भी राज्यों के भौगोलिक क्षेत्र पर फोड़ना
चाहते हैं ऐसे में कोई यह कैसे मान ले कि इनके छोटे राज्यों की अवधारणा
कहीं से भी विकास को गति दे पाने में सफल होगी. उत्तर प्रदेश का बंटवारा
राजनैतिक स्तर पर हो सकता है पर नेताओं की सोच में जो बंटवारा घुसा हुआ है
उसका कोई जवाब किसी के पास नहीं है. इससे यही लगता है कि कम संसाधन में भी
पहले जो लोग राज्य के काम काज को चला लिया करते थे आज वे अधिक संसाधनों के
साथ भी जनता को सुशासन दे पाने में असफल हैं और यह असफलता ही उनको राज्य के
विभाजन की मांग की तरफ ले जा रही है. मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
There is still no option. BJP is nowhere and Congress may have day-dreams. SP will not return in power, so what is the alternate.
जवाब देंहटाएंAapke dimag m abhi bhi manuvad ghusa h
जवाब देंहटाएंइस तरह से बेनामी रहकर टिप्पणी करने से समस्या का हल नहीं निकला करता.... मुझे किसी दल से मतलब नहीं है पर जो वास्तविकता है वह सामने हैं टिप्पणियों से लगता है कि एक भाजपा और दूसरे बसपा के समर्थक हैं... अच्छा हो कि अपने नाम के साथ आयें और प्रदेश/देश के लिए सही मार्ग चुनने के लिए इन घटिया नेताओं को मजबूर करें...
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