मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

चिंतित उद्योग जगत

जिस तरह से हर मामले में राजनैतिक उठापटक ने अब देश में पहला स्थान पा लिया है उसके बाद यही लगता है कि देश में अब आर्थिक सुधारों की गाड़ी पटरी पर लाने के लिए कोई भी सहमति बन पाना आसान काम नहीं रह गया है. अब देश के प्रमुख उद्योगपति और टाटा समूह के चेयरमैन रतन टाटा ने भी सरकार के फैसले लेने की गति पर प्रश्न चिन्ह लगाया है उससे यही लगता है कि देश के राजनैतिक तंत्र में अब भी विश्व के साथ चलने की समझ विकसित नहीं हो पाई है. ऐसा नहीं है कि रतन टाटा पहले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने इस तरह के मामलों पर राजनैतिक चक्काजाम पर अपने विचार व्यक्त किये हैं उनसे पहले महिंद्रा, विप्रो, रिलायंस के प्रमुखों की तरफ से भी ऐसी बातें कही जा चुकी हैं. यह सही है कि हर देश/ व्यापारी/ संस्था या व्यक्ति किसी भी काम को शुरू करने से पहले अपने लाभ हानि के बारे में विचार करते हैं तो अगर इस मामले में हमारे देश में भी खुले तौर पर विचार विमर्श हो तो इसमें क्या बुराई है पर अभी तक हमारे देश के राजनैतिक तंत्र में महत्वपूर्ण मुद्दों पर असहमति दिखाने के लिए संसद को ठप करने का विचार सबसे आगे दिखाई देता है.
    देश में कोई भी सरकार यह नहीं चाहती कि उसके किसी फैसले से उसकी पार्टी और सरकार को राजनैतिक नुकसान हो फिर भी जिस तरह से संसद से सड़क तक केवल धरना प्रदर्शन की बातें ही की जाती हैं उससे क्या साबित होता है कि कहीं न कहीं हमारे नेताओं ने लोकतंत्र का अपहरण कर रखा है और वे लोकतान्त्रिक मूल्यों की दुहाई देते हुए ही लोकतंत्र का चीरहरण करने का प्रयास करते दिखाई देते हैं. खुदरा बाज़ार में विदेशी व्यापारियों के आने से क्या अंतर पड़ने वाला है इसका जवाब किसी के पास नहीं है हर व्यक्ति इसी चिंता से घुला जा रहा है कि आगे क्या होगा ? अभी केवल जिन शहरों के लिए इस तरह का प्रस्ताव किया गया है वहां पर पहले से ही भारतीय ब्रांड मौजूद हैं और उनकी मौजूदगी से किसे अभी तक नुकसान हुआ है क्या इस बात का पता किसी ने लगाने की कोशिश की है ? किसी परिवर्तन के साथ अपने को ढालने के स्थान पर हम केवल उन परिवर्तनों से लुट जाने की बातें ही क्यों करते रहते हैं ? क्या हमारे उद्योग धंधे और हमारे छोटे व्यवसायी इतने कमज़ोर हैं कि कुछ विदेशी कंपनियों के आने से ही उनका सब कुछ ख़त्म हो जाने वाला है ?
    क्या कोई यह बताने को तैयार है कि जब हमारे देश के उद्योगपतियों ने विदेशों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है तो हमारे छोटे व्यापारी ऐसा क्यों नहीं कर सकते ? असल में इस तरह की गतिविधियों से कृषि क्षेत्र को वास्तव में बहुत बड़ा लाभ होने वाला है और जब देश की आत्मा गाँवों में ही बसती है तो फिर गाँवों को बचाने के लिए कुछ किया जाना कहाँ से ग़लत है ? इन निर्णय को अपने लिए परेशानी के स्थान पर अवसर के रूप में देखना चाहिए और इसी बहाने पहले से अपने घरेलू व्यवसायियों को इस तरह की प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार किया जाना चाहिए. भारत की अर्थव्यवस्था में इतनी मज़बूती है कि उसने वैश्विक मंदी से समय भी बेहतर नतीजे दिए जिस बात का लोहा आज दुनिया के बड़े बड़े अर्थशास्त्री भी मानते हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि इस निर्णय से केवल कुछ बड़े व्यवसायियों के कारोबार पर बड़ा असर पड़ने की सम्भावना के चलते ही ये लोग छोटे व्यापारियों को इस तरह से डराने का काम करने में लगे हुए हैं जिससे सरकार को भी यह लगे कि ऐसे फ़ैसले से उसको बहुत बड़ा राजनैतिक नुकसान हो जायेगा. इस बिल की आशंकाओं को दूर करने के लिए विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि केवल हल्ला मचाने से कुछ भी ठीक नहीं होगा हमें अपनेको इसके लिए मजबूती से तैयार करना ही होगा.      
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