मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

खुदरा का ख़तरा

    देश में खुदरा व्यापार में विदेशी पूँजी निवेश से वास्तव में कितना ख़तरा आने वाला है यह तो समय ही बताएगा पर देश के राजनीतिज्ञों की घटिया सोच के पीछे छिपी मानसिकता अब किसी से भी छिपी नहीं रह गयी है. यह सही है कि हर नए कदम के दो पहलू हो सकते हैं जिनमें से एक हमारी आकांक्षाओं और आंकलन के जैसा होता है और दूसरा उसका उल्टा हो सकता है. इस चिंता में कि अब आगे क्या हो जायेगा हम हाथ पर हाथ धर कर तो नहीं बैठे रह सकते हैं ? देश में विकास के आयामों को स्थापित करने और देश के संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल करने के लिए अब जितने पूँजी निवेश की आवश्यकता है वह कहीं से भी देश के अन्दर से नहीं जुटाई जा सकती है तो इस कमी को दूर करने और कृषि और खुदरा व्यापार के क्षेत्र में व्याप्त असंतुलन को दूर करने के लिए अगर सरकार इसको लाना चाहती है तो इसमें समस्या क्या है ? आज सबसे बड़ी समस्या यह है कि भाजपा भी इस तरह के तथाकथित लोकलुभावन मुद्दों में फँसी हुई है जबकि २००४ के आम चुनाव के घोषणा पत्र में उसने भी इसको लागू करने की बात कही थी. आज जिस तरह से देश के लिए दीर्घकालिक नीतियां बनाये जाने की आवश्यकता है पर उसके स्थान पर केवल वोटों का खेल ही खेला जा रहा है उससे देश का किसी भी तरह से भला होने वाला नहीं है.
   हर नयी बात के साथ कुछ आशंकाएं भी जुड़ी होती है तो इस समय भी कुछ आशंकाएं हैं जो भाजपा भी जानती है पर वह किसी भी मुद्दे पर सरकार को घेरने का कोई भी अवसर छोड़ना नहीं चाहती है भले ही सरकार उसके द्वारा समर्थित किसी नीति पर काम कर रही हो ? अगर खुदरा व्यापार में विदेशी पूँजी आने लगती है तो उससे किसका भला होने वाला है ? कहीं ऐसा तो नहीं कुछ बड़े व्यापारी अपनी कालाबाज़ारी की दुकानें बंद हो जाने के ख़तरे से परेशान होकर केवल राजनैतिक पार्टियों से हो हल्ला मचवाना चाहते हैं जिससे मुख्य मुद्दा कहीं पीछे छूट जाये और वे अपनी राजनैतिक रोटियां आसानी से सेंक सकें ? यह मसला सत्ताधारी दल के लिए फिलहाल समस्या पैदा करने वाला ही है क्योंकि उसकी जिन योजनाओं के तहत यह लागू किया जाना था अब वह पूरी नहीं हो पाएंगीं. आज दिक्कत यह है कि इस विदेशी पूँजी निवेश के बारे में सभी बोल रहे हैं पर कोई भी यह नहीं बताना चाह रहा है कि आख़िर इसको किस तरह से लागू किये जाने की आवश्यकता है ? आज जो नुकसान ये नेता देश का करने में लगे हुए हैं जब देश इनसे सवाल पूछेगा तो तब जवाब देने के लिए ये तो नहीं होगें पर इनको इन निर्णयों के लिए कोसा अवश्य ही जायेगा.
   देश के नेताओं ने तो केवल राजनैतिक विरोध के लिए स्वदेशी उद्योगों तक को देश के अन्दर ही काम नहीं करने दिया यह सही है कि कहीं पर उद्योग लगाने से राज्य में कुछ लोगों का अहित हो सकता है पर देश में ही इस तरह से काम करने से किसी राज्य विशेष में विकास अवरुद्ध भी हो सकता है ? बंगाल से टाटा के जाने से टाटा की सेहत पर कोई खास अंतर नहीं पड़ा पर राज्य के औद्योगिक विकास के लिए यह अच्छा नहीं रहा जहाँ इतने दिनों से उद्योगों का विकास नहीं हो पा रहा था ? उत्तर प्रदेश में जिन परिस्थियों में माया सरकार ने मुकेश अम्बानी को ही काम नहीं करने दिया वह सभी जानते हैं ? अगर मुकेश अम्बानी की चेन प्रदेश में खुलती तो यहाँ पर रोज़गार के अवसर बनते और आम लोगों को लाभ मिलता पर जब नेताओं को केवल अपने लाभ से ही मतलब होने लगे तो आख़िर किस तरह से सभी कुछ सही चल सकता है ? परमाणु समझौते का जिस तरह से विरोध किया गया और अब जिस तरह से परमाणु बिजलीघरों का विरोध किया जा रहा है उससे यही लगता है कि अगले ४/५ दशकों में देश के विकास को मूलभूत संरचनाओं के कारण बहुत बड़ा धक्का लगने वाला है क्योंकि हमारी जन शक्ति तो सब कुछ करने में सफल होगी पर हमारे पास संसाधनों का इतना टोटा हो जायेगा कि कोई भी विकास पता ही नहीं चलेगा.
    
   

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