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शनिवार, 31 दिसंबर 2011

लोकपाल पर आरोप प्रत्यारोप

        जैसा कि लोकसभा में लोकपाल विधेयक के पारित होने के समय से ही लगने लगा था कि इस बिल के लिए राज्यसभा में रास्ता आसान नहीं होने वाला है ठीक वैसा ही हुआ. यह सही है कि इस मसले पर भले ही विपक्ष सरकार को असफल बता रहा हो और सरकार विपक्ष पर आरोप लगा रही हो पर कुल मिलकर इस पूरी कवायद में लोकतंत्र ही हारा है क्योंकि जिस तरह से सबने अपनी अपनी सुविधाओं के अनुसार इस विधेयक पर राजनीति शुरू की उसकी कोई ज़रुरत ही नहीं थी. अब जब यह विधेयक लोकसभा में पारित हो चुका है और राज्य सभा में इसके पारित होने के बाद ही इसे कानून का दर्ज़ा मिल सकेगा तो सरकार ने भी अपनी मंशा स्पष्ट कर दी है कि वह बजट सत्र में इसे फिर से पारित करवाने की कोशिश करेगी. अभी तक सरकार ने जिस तरह से सभी पक्षों की बातें मानने की कोशिश की उसके कारण ही यह विधेयक ऐसा बन पाया कि अधिकतर नेताओं को भी यह ख़तरनाक लगने लगा है. इस मसले पर इतना कुछ लिखा और बोला जा चुका है कि जनता को यह लगने लगा कि जैसे यह कोई जादू की छड़ी बनकर भ्रष्टाचार को मिटाने वाला यंत्र साबित होगा जबकि हमारे नेताओं ने इसकी हवा निकलने में कोई कसर नहीं रखी.
     इस पूरे मसले में अन्ना की बात न किये जाने से लोकपाल की बात पूरी ही नहीं हो पायेगी. जिस तरह से अन्ना की टीम सरकार से अप्रैल में बात कर रही थी और उसके बाद अचानक ही अन्ना की टीम और बाबा रामदेव में मतभेद उभरे जिसके कारण बाबा रामदेव ने अपने को इस आन्दोलन से अलग कर अलग से अनशन करना शुरू कर दिया. कुछ मसलों पर जब टीम अन्ना में ही मतभेद हो गए थे तो देश के नेता जिन पर इस बिल कि सबसे ज्यादा मार पड़ने वाली थी भला कैसे चुप रह जाते ? बाबा के आन्दोलन को जिस तरह से दिल्ली पुलिस ने कुचला और उसके बाद टीम अन्ना ने सरकार से वार्ता स्थगित कर दी उसका कोई औचित्य नहीं था क्योंकि अन्ना लोकपाल पर एक सार्थक वार्ता में शामिल थे जिसकी परिणिति एक सशक्त लोकपाल के रूप में हो सकती थी. पर जिस तरह से सबने अपने अपने हितों में अपने अपने लोकपाल बनाने शुरू कर दिए तो उनका हश्र तो ऐसा ही होना था. अन्ना जिस तरह से सरकार और संसद से अपने को ऊपर समझने लगे थे मुंबई में जनता ने उन्हें भी आइना दिखा ही दिया कि आन्दोलन केवल प्रासंगिकता के हिसाब से चलाये जा सकते हैं न कि सुविधा के हिसाब से ?
   अन्ना की टीम में भी बहुत अच्छे लोग हैं पर वे संसद के सामने यह विकल्प कैसे रख सकते है कि वह वही लोकपाल विधेयक बनाये जैसा वे चाहते हैं ? सरकार ने जिस हद तक अन्ना को सम्मान देने का प्रयास किया शायद टीम अन्ना ने उसे सरकार की कमज़ोरी मान लिया जिसके बाद दोनों पक्षों में बात उलझती ही चली गयी. इस पूरे मसले में विपक्षी दलों ने भी अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने में कोई कसर नहीं रखी क्योंकि उन्हें यह डर था कि कहीं लोकपाल बनाने का श्रेय कांग्रेस के खाते में न चला जाये ? एक बहुत अच्छा आन्दोलन जो अपनी अच्छी परिणिति को पा सकता था केवल कुछ लोगों के व्यक्तिगत मंसूबों की भेंट चढ़ गया. आज जो लोग सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं उन्होंने ने भी अपनी ज़िम्मेदारी को नहीं समझा और केवल वही किया जो वर्तमान सरकार को नीचा दिखा सकता था. हमारे नेता कितनी तैयारी के साथ संसद में जाते हैं और संसदीय काम के लिए कितने सचेत रहते हैं यह इसी से पता चलता है कि उन्होंने लोकपाल बिल पर संसद की स्थायी समिति की सिफारिशों को भी सदन में अनदेखा कर दिया गया ? अब भी अगर इस सदन का कोई सदस्य संवैधानिक मूल्यों और संसदीय परम्पराओं की बातें करता है तो उसे ढोंग न कहा जाये तो और क्या कहा जाये ?      
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