जिस तरह से पेट्रोलियम मंत्रालय ने आने वाले समय में पेट्रोल पम्प और गैस एजेंसियों के आवंटन में नए सिरे से बदलाव के बारे में स्थिति स्पष्ट की है उससे यही लगता है कि एक और अच्छा प्रयास केवल नियमों की भेंट चढ़ जाने वाला है. जिस तरह से अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए कोटा बढ़ाकर २७ % किये जाने का प्रस्ताव है वह निश्चित तौर पर बहुत ही अच्छा है पर इससे होने वाले वास्तविक लाभ को ज़मीन पर जब देखा जायेगा तो वे नगण्य ही होंगें. जिस तरह से सरकार ने इस क्षेत्र में सभी की भागीदारी के बारे में फिर से सोच वह कहीं से भी ग़लत नहीं है पर आज के समय में इन खुदरा केन्द्रों को खोलने के लिए जितने धन की आवश्यकता होती है वह कैसे जुटाई जाएगी इस बात पर अभी भी संदेह बना हुआ है. योजनाओं में कमी नहीं होती पर जब उसके क्रियान्वयन की बात की जाती है तो सब कुछ गड़बड़ा जाता है. समाज के वंचितों के लिए इस तरह के प्रयास किये जाएँ इसमें कोई संदेह नहीं है पर इसमें भी क्रीमीलेयर का ध्यान रखा जाये वरना जिनको लाभ देने के लिए यह कवायद की जा रही है वह वंचित ही रह जायेंगें.
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क्या आज देश में अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग या अन्य श्रेणियों में आरक्षण पाने वाले वर्ग के पैसे वाले लोग इन सुविधाओं को नहीं लपक लेंगें ? कौन होगा जो इस तरह की बातों पर अंकुश लगा सकेगा कि यह लाभ वास्तव में उन लोगों तक पहुंचे जो इसके हकदार हैं ? आज तक विभिन्न सरकारी योजनाओं में जितनी भी सुविधाएँ पिछड़ों के लिए बनायीं गयी हैं उनमें से कितनी वास्तव में इस वर्ग की सहायता कर पाने में सफल हुई हैं ? कहीं भी किसी के पास इस बात के आंकड़े नहीं होंगें कि नियम के अनुसार आरक्षण का पालन करने के बाद भी कितने नए लोगों को इसका लाभ मिल पाया है ? ऐसा सिर्फ इसलिए है कि आम लोग यह सब जान ही नहीं पाते हैं और उनके लिए यह सब सपने जैसा ही होता है कि सरकार के स्तर पर कहाँ क्या चल रहा है ? ऐसे में इस बात की सबसे बाद चुनौती होती है कि किस तरह से वास्तविक पात्रों तक इन लाभों को पहुँचाया जाये ? पूरे देश में अगर किसी भी आरक्षित श्रेणी से दिए गए खुदरा केन्द्रों की लिस्ट बनायीं जाये तो उसमें ९०% वही लोग होंगें जिनके रिश्तेदार इसमें पहले से थे या फिर वे किसी नेता/ अधिकारी के रिश्तेदार थे ?
इस तरह के आवंटन को करने में अगर सहकारिता का समावेश कर दिया जाये और सम्बंधित आरक्षित वर्ग की समितियां बनाकर यह तय किया जाये कि इस तरह के लाभ को समिति में बांटा जायेगा और समिति में उसी वर्ग के लोग होंगें जिनके लिए यह आवंटित श्रेणी है तो इससे जहाँ सहकारिता को बल मिलेगा वहीं दूसरी तरफ़ इससे मिलने वाले लाभ को एक व्यक्ति तक जाने से रोका जा सकेगा और इसके माध्यम से कई अन्य लोगों को भी लाभ मिल सकेगा. इस क्षेत्र से जुड़ी तमाम गतिविधियाँ होती हैं जिन्हें इस केंद्र के साथ ही जोड़ा जा सकता है और समिति की आय को बढ़ाया जा सकता है. इस तरह के काम को शुरू करने में अनुभव की कमी के कारण हो सकता है कि सफलता आसानी से न मिले पर सहकारिता विभाग से जोड़ने के कारण इस क्षेत्र में भी सहभागिता को आज़माया जा सकता है. आज देश के अधिकांश राज्यों में सहकारिता ने दम तोड़ दिया है ऐसे में इस पर भरोसा करना भी कितना सही होगा यह भी नहीं कहा जा सकता है ? फिलहाल इस काम को इस तरह से प्रायोगिक तरीके से चलने में कोई बुराई नहीं है और हो सकता है यह तंत्र बहुत अच्छे से काम करना शुरू कर दे और समाज के पिछड़े वर्ग को भी इसका वास्तविक लाभ मिल सके.
बहुत अच्छा लेख है. बाकी क्षेत्रो में भी लागू किया जाना चाहिये ताकि समाज में समानता आ सके.
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