मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 20 अगस्त 2012

महंगाई और किसान

            बाराबंकी में एक सभा में बोलते हुए केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने जिस तरह से यह कहा कि मंहगाई बढ़ने से वे खुश हैं क्योंकि उससे किसानों को उसकी उपज का सही मूल्य मिलता है वह एक बार फिर से संप्रग सरकार पर विपक्ष को हमला करने का अवसर प्रदान करने वाला है. जब पूरे देश में मंहगाई को लेकर कांग्रेस और संप्रग को दोषी ठहराया जा रहा है तो उस स्थिति में एक केंद्रीय मंत्री के इस तरह के बयान से हल्ला तो मचना ही था. वैसे अगर देखा जाये तो भारतीय परिस्थितियों में इस तरह के बयान आम तौर पर नेता नहीं देते हैं क्योंकि सही होते हुए भी ये बयान विवादों को जन्म देते हैं जिसके लिए अनावश्यक रूप से सरकार को भी स्पष्टीकरण देने पड़ते है. देश में अभी तक जो कुछ भी चलता रहता है उसमें किसी भी मंत्री से ऐसे बयान की आशा नहीं की जाती है क्योंकि शायद आम भारतीय लोगों और नेताओं को इस तरह के सीधे साधे सच अच्छे नहीं लगते हैं और हम सरकार से केवल झूठे वायदे सुनने के आदी ही रहे हैं.
              देश में क्या आज किसानों को उनके उत्पादों के सही दाम मिल पाते हैं शायद नहीं पर बेनी प्रसाद के इस बयान ने यह सवाल एक बार फिर से सबके सामने लाकर खड़ा कर दिया है क्योंकि जब तक आम भारतीय किसान जिसे भारत की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ कहा जाता है अपनी मेहनत का फल नहीं पायेगा तब तक  देश में निचले स्तर तक खुशहाली कैसे पहुंचेगी ? आज देश में कृषि उत्पादों के बाज़ार तक पहुँचने के जो भी माध्यम हैं वे कहीं न कहीं से बिचौलियों के लिए मोटे मुनाफ़े के मार्ग पर होकर ही जाते हैं जिससे किसान को अपनी उपज का सही मूल्य नहीं मिलता है और मुनाफ़ा खोरों को पूरे तंत्र में से ही बहुत कुछ खाने पीने के साधन मिल जाते हैं. अगर बेनी प्रसाद बढ़ती हुई मंहगाई से किसान के हितों को जोड़कर देखते हैं तो उसमें भला किसी को क्या आपत्ति होने चाहिए पर मुद्दों से हटकर नए और गौण मुद्दों पर बहस करने की हमारे नेताओ की आदत किसान को इस हक़ से बड़े आसानी से ही बेदखल कर देती है. क्या यह सम्भव है कि किसानों की दशा कम मूल्य पर खरीदे गए उसके उत्पादों से बेहतर हो सकती है ?
            इतने सारे विभागों और कर्मचारियों के होने के बाद भी आख़िर आम किसान को उसकी मेहनत के अनुसार कीमत क्यों नहीं मिल पाती है आज इस बात का जवाब देने के लिए कोई भी तैयार नहीं है. जिस मूल्य पर कृषि उपज बाज़ारों में मिलती है क्या कभी किसी ने यह जानने की कोशिश की है कि उसके लिए किसान को क्या मिलता है ? आख़िर क्यों हम यह मान कर चलते हैं कि हमारे वेतन में तो बढ़ोत्तरी होती रहे पर हमें बाज़ार में सस्ती चीज़ें ही मिलती रहें ? आज भी हमें वेतन के नए आयोग की आवश्यकता लगती है पर बाज़ार में वस्तुएं हमें १९४० के दामों पर ही चाहिए आख़िर कौन सा ऐसा जादू है जो वेतन बढ़ने के बाद भी मंहगाई को रोक कर रख सकता हैं ? आज और अब हमें इस बात को समझना ही होगा कि जिस अनुपात में मंहगाई बढ़ रही हैं उसी अनुपात में हमारी कमाई भी तो बढ़ रही है तो हमारे लिए इस सामान्य अर्थ शास्त्र को समझना मुश्किल नहीं रह जायेगा. अगर किसी सरकार के बस में होता तो हम आज भी १९४७ के मूल्यों पर सामान खरीद रहे होते क्योंकि कोई भी लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार अपनी सरकार पर मंहगाई बढ़ाने का ठप्पा नहीं लगवाना चाहती है.    
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

1 टिप्पणी:

  1. बेनी दरियाबाद के, है पड़ोस मम ग्राम |
    उपजा गुंडे खेत में, बेंचें ऊंचे दाम |
    बेंचें ऊंचे दाम, कभी गन्ना बोते थे |
    बड़ा मुलायम नाम, ख़ास नेता होते थे |
    अब तो नाम किसान, शान से लोहा बोवें |
    लेगा लोहा कौन, शत्रु सरयू में धोवें ||

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