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रविवार, 28 अप्रैल 2013

चुनाव आयोग और नेता

                  कर्नाटक विधान सभा चुनावों में गुलबर्गा में चुनाव प्रचार के सम्बन्ध में गईं मायावती के हेलीकाप्टर और पर्स की तलाशी के बाद उन्होंने जिस तरह के तेवर दिखाए उनका कोई मतलब नहीं बनता है क्योंकि आज के समय में यदि कोई नेता यह कहे कि चुनाव आयोग ने ऐसे निर्देश किसी के कहने पर दिए हैं तो यह अपने आप में हास्यास्पद ही लगता है क्योंकि पिछले कुछ दशकों में आयोग ने जिन उच्च मानदंडों को स्थापित कर लोकतंत्र को मजबूत बनाने का काम किया है उसकी इस कोशिश पर कोई भी ऊँगली नहीं उठा सकता है पर माया जैसे नेताओं के साथ यह सब होता है तो उन्हें पता नहीं इस सामान्य कानूनी प्रकिया पर इतनी अधिक आपत्ति क्यों होने लगती है और चुनाव आयोग द्वारा उनकी तलाशी को दलितों से जोड़ने का उनका पुराना राग शुरू हो जाता है ? क्या दलित देश में विशेषाधिकार मिलने के कारण कानून से ऊपर हो चुके हैं या फिर वे जो कुछ भी करें उनको सब कुछ करने की छूट सिर्फ इसलिए ही है कि वे दलित हैं ? इस घटना से आयोग को यह काम और करना चाहिए कि जब भी चुनावों के दौरान किसी भी नेता की इस तरह से तलाशी ली जाए तो उसकी सूचना भी आयोग की वेबसाइट पर डाल दिया जाए जिससे जनता भी यह जान सके कि आयोग नेताओं पर इतनी कड़ी नज़र भी रखता है.
                   देश में राजनीति और नेताओं का जो स्तर होता जा रहा है उससे तो यही लगता है कि हर नेता और राजनैतिक दल कुछ अलग करके अपने को सर्वोत्तम दिखने की चेष्टा करने की कोशिशों में लगा हुआ है जबकि नेता उनकी असलियत जान चुकी है और उसी के अनुसार वह अपना काम करती रहती है. जब देश में रहना है तो देश के कानूनों का सम्मान करना सीखना ही होगा क्योंकि बसपा द्वारा इस तरह से हाय तौबा मचाये जाने पर सुषमा स्वराज ने भी इस बात का खुलासा किया कि तमिलनाडु और कर्नाटक चुनावों के दौरान उनकी भी तलाशी ली गई थी तो इससे यही पता चलता है कि चुनाव आयोग अपने इस अधिकार का उपयोग कर राज्य स्तरीय नेताओं को यह संदेश भी देना चाहता है कि आवश्यकता पड़ने पर चुनावों के दौरान किसी की भी कहीं पर भी तलाशी ली जा सकती है. सुषमा ने इसे जांच का सामान्य हिस्सा मानते हुए इस पर तब कुछ नहीं बोला क्योंकि चुनाव के समय देश का संविधान सभी को एक समान कर देता है और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए उसके पास असीमित अधिकार भी आ जाते हैं.
                  अच्छा ही होता कि माया इस मुद्दे पर चुप रहकर अपने चुनाव प्रचार को शालीनता से करती रहतीं पर उन्हें यह सामान्य कानूनी प्रक्रिया से अधिक दलित उत्पीड़न का मामला अधिक लगा और दलितों की भावनाओं को ग़लत तरीके से दलित अस्मिता से जोड़ने का उनका पुराना शगल यहाँ भी दिखाई दिया क्योंकि उन्होंने आज तक इसी तरह की बहुत सारी सामान्य प्रक्रियाओं को दलितों के अशिक्षित वर्ग में दलित भावनाओं को भड़काने के रूप में ही इस्तेमाल भी किया है. यदि उन्हें इस तरह की किसी जांच से इतना भय लगता है तो उन्हें प्रचार के लिए निकलना ही नहीं चाहिए और यदि वे यह सोचती हैं कि उनके इस तरह के व्यवहार के बाद चुनाव आयोग उन पर नज़र नहीं रखेगा तो यह उनकी बहुत बड़ी भूल है. उन्होंने जिस तरह से यह कहा कि क्या कभी राहुल यो सोनिया कि इस तरह से तलाशी ली गई है तो यह उनकी दलित भावनाओं को भड़काने की मानसिकता का ही के हिस्सा भर है क्योंकि किसी को क्या अभी तक यह पता था कि सुषमा स्वराज की भी इस तरह से तलाशी ली जा चुकी है ? बसपा पर पैसे बांटने के आरोप हमेशा ही लगते हैं और यदि उन आरोपों की जांच के लिए आयोग यह करता है तो इसमें क्या ग़लत है ?          
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