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सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

रेल- किराया और तार्किकता

                               एक दशक की लम्बी राजनीति के बाद आखिर रेलवे ने इस बात को मान ही लिया कि केवल राजनैतिक कारणों से किराये और भाड़े को बढ़ाये जाने का अब देश में कोई औचित्य नहीं है क्योंकि यदि रेल के पहियों को चलते रहना है तो उसे आए वाली चुनौतियों के लिए खुद को तैयार रखना ही होगा. आखिर ऐसे कौन से कारण है जिनके कारण रेल ने इस तरह की दशा को प्राप्त किया है क्योंकि यह सब परिस्थितियां एक दिन में ही सामने नहीं आई हैं. पिछले दशक में रेलवे ने जिस तरह से संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल कर अपनी आय को बढ़ने में सफलता पायी थी वहीं इस दशक में सुधारों को सही तरह से लागू न किये जाने के कारण ही रेल की यह दुर्गति आज सबके सामने है. रेल किराया पता नहीं क्यों सदैव देश में एक अनावश्यक राजनैतिक मुद्दा बना रहा है जबकि सभी को पता है कि किसी भी सेवा को निर्बाध रूप से चलाये रखने के लिए जिन संसाधनों की आवश्यकता होती है यदि उनके बारे में सही तरह से नहीं सोचा जायेगा तो आने वाले समय में आर्थिक संकट से किसी भी तरह से नहीं बचा जा सकता है.
                             इस वर्ष के रेल बजट में जिस तरह से ईंधन समायोजक घटक (एएफसी) का प्रस्ताव किया गया था उसकी लम्बे समय से आवश्यकता महसूस की जा रही थी क्योंकि भारतीय रेल आज भी जिस तरह से डीज़ल को ही अपने मुख्य ईंधन के रूप में प्रयोग में लाती है जिसके लिए विदेश मुद्रा खर्च कर मंहगा कच्चा तेल खरीदना पड़ता है तो ईंधन के मद में होने वाले नुकसान से बचने के लिए अभी तक रेलवे के पास कोई कारगर नीति नहीं थी ? इस बार ईंधन की कीमतों पर भी ध्यान देकर जिस तरह से उसके भार को उपभोक्ताओं पर डालने की प्रक्रिया शुरू की गयी है उसका पूरा असर दिखने में तो लम्बा समय लगेगा पर उससे एक बात अवश्य ही हो जाएगी कि आज रेलवे का जो पैसा केवल ईंधन में ही खर्च हो जाया करता है आने वाले समय में उसे बचाकर अन्य परियोजनाओं पर भी खर्च करने के अवसर उत्पन्न हो सकेंगे. रेलवे को इस तरह की प्रक्रिया पर बहुत पहले से ही निर्णय लेने की आवश्यकता थी पर केवल लोक लुभावन राजनीति के कारण इस पर कोई फैसला नहीं लिया जा सका.
                            इस तरह की नीति बनाते समय जिस तरह से रेलवे को सभी तरह के किरायों को अपने इस तंत्र में लाना चाहिए था शायद अभी भी वहां पर कुछ राजनीति हावी रह गयी है क्योंकि लोकल ट्रेनों और उपनगरीय किरायों को इस वृद्धि से मुक्त रखा गया है. इस बारे में अब रेलवे को यह स्पष्ट करना ही होगा कि इन सुविधाओं का उपभोग करने वाले लोगों के माध्यम से क्या रेल इतनी आमदनी कर लेती है कि इनको इससे मुक्त रखा जा सके ? स्पष्ट है कि यह निर्णय कहीं न कहीं राजनीति से अधिक प्रभावित लगता है क्योंकि दिल्ली में किसी उपनगरीय सामान्य सेवा का उपयोग करने वाला कोई व्यक्ति उस मार्ग पर मेट्रो के होने केवल उससे ही यात्रा करना पसंद करता है तो आखिर यह राजनैतिक पैंतरेबाजी करके इन किरायों को अप्रभावी रखने की मंशा कैसे सही कही जा सकती है ? इस मद में पूरा नियंत्रण रेलवे बोर्ड या एक ईंधन सम्बन्धी समिति के हाथों में होना चाहिए जिसे हर तरह के राजनैतिक दबाव से मुक्त रखा जाना भी उतना ही आवश्यक है जितना रेल की सेहत सुधरने के लिए किसी भी उपाय पर अमल करना तभी भारतीय रेल अपने लिए बेहतर संसाधन जुटाकर यात्रियों को बेहतर सुविधाएँ व संरक्षा दे पाने में सफल हो सकेगी.      
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