मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

विधवा महिला और पूजन कर्म

                                        दक्षिण भारत के मंगलौर के कुद्रोली में श्री गोकर्नाथेश्वर मंदिर में जिस तरह से दो विधवा महिलाओं को पुजारियों के विधिपूर्वक रूप में नियुक्त किया गया उसके बाद से हिन्दू समाज की उस अवधारणा को तोड़ने में कुछ हद तक मदद अवश्य ही मिलने वाली है जिसके तहत इन विधवा महिलाओं को शुभ कामों के लिए अशुभ माना जाता है. इस तरह के समाज सुधार से जुड़े हुए क़दमों के समर्थन में पूर्व केन्द्रीय मंत्री जनार्दन पुजारी ने अपने स्तर पर पूरा सहयोग करते हुए इसके लिए आवश्यक प्रबंध किये उससे यही लगता है कि आज भी ऐसे राजनेता मौजूद हैं जो समाज और देश से जुड़े हर मुद्दे के लिए एक अलग और प्रगतिशील सोच भी रखते हैं. हालाँकि दक्षिण भारत के परंपरागत मूल्यों के साथ जीने वाले समाज के लिए यह एक बड़ा परिवर्तन ही है क्योंकि वहां पर रूढ़ियों को जिस तरह से आज भी माना जाता है तो समाज के लिए इस परिवर्तन को किसी छोटे स्तर पर स्वीकार करना भी आने वाले बड़े परिवर्तन की तरफ ही संकेत करता है. 
                                         इस मंदिर ने जिस तरह से विधवा महिलाओं को समाज में स्वीकार्यता दिलाने और उन्हें भी अन्य महिलाओं के समान अधिकार दिलाने की जो पहल की है उसे एक दिन में ही अंजाम तक नहीं पहुँचाया गया है क्योंकि इनको पूरी तरह से चार महीने का प्रशिक्षण भी दिया गया जिसके बाद उन्हें मंदिर में पूजन कर्म करने के लिए नियुक्त किया गया है. मंदिर समिति ने जिस तरह से पूरी व्यवस्था को बनाकर ही इस आयोजन को संपन्न किया है वह निश्चित तौर पर बधाई की पात्र है क्योंकि जब तक सामजिक बुराइयों को शिक्षा और मानवीय दृष्टिकोण से समझने का प्रयास नहीं किया जायेगा तब तक उनका सही असर समाज पर नहीं दिखाई दे सकता है जिससे कोई भी अच्छा प्रयास शुरू होने के बाद बहुत लम्बे समय तक नहीं चल पाता है. यह भी निश्चित है कि इस तरह के कर्म को निरन्तर बनाये रखने के लिए जिस तरह के प्रयासों की आवश्यकता है उन पर भी लगातार काम करते रहना पड़ेगा. इस तरह के प्रयास से जहाँ समाज में विधवा महिलाओं के प्रति सम्मान बढेगा और आम लोग उनके द्वारा की जाने वाली पूजा को सही मानेगें तो अपने आप में यह उनकी स्थिति को सुधारने वाला ही साबित होने वाला है.
                                       यह अपने आप में एक बड़े सामजिक परिवर्तन और सोच में बदलाव लाने वाला कदम तो हो ही सकता है पर जिस तरह से कुछ लोगों और मंदिर द्वारा इसकी शुरुवात की गयी है तो रूढ़िवादी और परंपरागत समाज के कुछ ठेकेदार इसका विरोध करने के लिए भी सामने आ सकते हैं और उसका जो भी असर समाज पर दिखाई देगा वह अपने आप में प्रतिगामी सोच वाला ही होगा ? इस तरह के किसी भी प्रयास को अब समाज के हर वर्ग से जोड़ने की तरफ भी कदम उठाये जाने की जरूरत है क्योंकि जब तक ऐसा प्रयास नहीं किया जायेगा तब तक यह घटना केवल एक दो स्थानों तक ही सीमित रह जाने वाली है और उसके विरोधी कहीं न कहीं से विजयी हो सकते हैं. इस मसले को समाज सुधार की दृष्टि से ही देखा जाये तो उचित रहेगा क्योंकि जब तक पूरे समाज में इन विधवा महिलाओं के बारे में जागरूकता नहीं पनपेगी तब तक उनकी सामाजिक रूढ़िवादी सोच में भी बदलाव नहीं किया जा सकेगा. इस बदलाव को समाज तक पहुँचाने की अधिक आवश्यकता है क्योंकि इसके विरोधी अपने कुतर्कों के माध्यम से इस तरह के किसी भी अच्छे प्रयास को इस स्तर पर रोक देने की हर संभव कोशिश करने से नहीं चूकने वाले हैं.

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