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शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

पेट्रोलियम पदार्थ और उत्पाद शुल्क

                                                       केंद्र सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल के दामों में लगातार हो रही कमी के बीच जिस तरह से एक नयी तरह से उपभोक्ताओं की जेब काटने की तैयारी शुरू कर दी है उसका कोई अंत नहीं दिखाई दे रहा है. जनवरी २०१३ में कच्चे तेल के दामों के अनुसार डीज़ल को बाजार के हवाले करने की घोषणा के बाद जिस तरह से पहले से बाजार आधारित पेट्रोल के समान कर देने की बात कही गयी थी आज सरकार की भावना उसके विपरीत जाती हुई दिखाई दे रही है. भारतीय बाज़ार में पेट्रोलियम पदार्थों का लगभग हर क्षेत्र से व्यापक रूप से जुड़ा रहता है क्योंकि आम लोगों के ईंधन के रूप में डीज़ल की कीमतों का असर सीधे तौर पर खुदरा मूल्यों पर पड़ा ही करता है. आज जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल के दामों में कमी होती जा रही है तो सरकार के पास इन्हें सस्ता कर मंहगाई की दर को उपभोक्ता वस्तुओं तक पहुँचाने में मदद मिल सकती है पर वह अपने राजस्व घाटे को इस रास्ते से कम करने की जुगत भिड़ाने में लगी हुई है.
                                                   यह सही है और सभी जानते भी हैं कि कच्चे तेल के यह दाम स्थायी नहीं रहने वाले हैं तो इस तरह से वित्तीय वर्ष के आधे से अधिक निकल जाने पर बीच में ही उत्पाद शुल्क जैसे मुद्दों पर निर्णय लेना किस तरह से भारतीय अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने वाला साबित होगा यह अभी स्पष्ट नहीं है. देश में तेल को लेकर सभी दल हमेशा से ही राजनीति किया करते हैं और इस बार जिस तरह से अंतर्राष्ट्रीय अवसर को देश में गंवाने का काम किया जा रहा है उससे खुदरा मूल्यों की गिरावट पर कोई ख़ास असर नहीं दिखाई देने वाला है. देश में आम लोगों की ज़रूरत बन चुके इस तरह के पदार्थों को राजस्व संग्रह जैसे उपायों से मुक्त किया जाना चाहिए जिससे इसके अच्छे और बुरे प्रभाव को समझने में जनता भी सफल हो सके और भविष्य में कम से कम तेल पर कोई भी राजनैतिक दल किसी भी तरह की राजनीति न कर सके.
                                                   देश की जनता से प्रति लीटर केंद्र और राज्य के कर को सीमित किया जाना चाहिए और इस मामले में बाज़ार के नियमों से सरकार को बचना भी चाहिए क्योंकि ये उत्पाद प्रति लीटर कर देने की श्रेणी में किया जाने की आवश्यकता है. आज जब दाम बढ़ते हैं तो उनके मूल्यों के अनुसर उनके कर भी प्रतिशत में बढ़ते हैं जिससे सरकार इस तरह के चोर रास्ते खोजने में लग जाती हैं केंद्र की तरह यदि राज्य सरकारें भी इसी तरह से इनके करों में संशोधन कर दें तो उसका पूरे पेट्रोलियम परिदृश्य पर कितना बुरा असर पड़ेगा यह आसानी से समझा जा सकता है. केंद्र सरकार को अब इस मामले में पहल करते हुए करों और शुल्कों को प्रति लीटर तक ही निर्धारित करने सम्बन्धी नियमों पर विचार करना चाहिए जिससे इस क्षेत्र के विपणन में चल रही कमियों को सही मायने में दूर किया जा सके और सीमित लाभ देने वाले विकल्पों से बचे जाने की शुरुवात भी की जा सके पर संभवतः केंद्र सरकार देश की वास्तविक वित्तीय सेहत सुधारने की अपेक्षा अपने राजस्व घाटे को हर क्षेत्र में इस तरह के उपायों से कम करके दिखाने की जुगत को अधिक महत्व दे रही है.     
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